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________________ २०२ आवश्यक नियुक्ति को प्राप्त हुए। २५६. भगवान् का निर्वाण । वृत्त, त्र्यस्त्र तथा चतुरस्र-इन आकृतियों वाली तीन चिताओं का निर्माण। एक चिता तीर्थंकर के लिए, एक इक्ष्वाकुवंशीय अनगारों के लिए तथा एक शेष अनगारों के लिए। सकथाहनु (दाढा), स्तूप तथा जिनगृह का निर्माण । याचक और आहिताग्नि।' २५७. आदर्शगृह में भरत चक्रवर्ती की अंगुलि से अंगूठी नीचे गिर गई। अंगुलि की अशोभा को देख, उसने सारे आभूषण निकाल दिए। संवेग से कैवल्य की उपलब्धि और प्रव्रज्या का स्वीकरण। २५८. [भगवान् के निवृत हो जाने पर मरीचि साधुओं के साथ विहरण करने लगा।] लोग जब धर्म की पृच्छा करते तब वह उन्हें धर्म बताता। धर्म से आकृष्ट लोगों को शिष्य रूप में साधुओं को उपहत करता। एक बार वह ग्लान हुआ। श्रमण उसकी परिचर्या नहीं करते थे। एक बार उसके पास कपिल नाम का राजकुमार आया। धर्म पूछने पर मरीचि ने कहा- 'कुछ धर्म यहां भी है। २५९, २६०. 'कुछ धर्म यहां भी है' इस एक दुर्भाषित-मिथ्या प्ररूपणा के कारण मरीचि दुःख-सागर को प्राप्त कर कोड़ाकोडी सागरोपम काल तक संसार में भ्रमण करता रहा तथा गर्व से तीन चक्कर काटकर, जंघा पर तीन थाप देने से नीचगोत्र कर्म का बंध किया। उन दोषों की आलोचना किए बिना वह ब्रह्म देवलोक में दश सागरोपम की स्थिति वाला देव बना। कपिल भी देव बना। उसने अन्तर्हित-आकाशस्थ रहकर अपने शिष्यों को तत्त्व कहा। २६१, २६२. इक्ष्वाकुकुल में उत्पन्न मरीचि ८४ लाख पूर्वो का आयुष्य पूरा कर ब्रह्मलोक कल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ। वहां से च्युत होकर वह कोल्लाक सन्निवेश में कौशिक नाम का ब्राह्मण हुआ। वहां ८० लाख पूर्व का आयुष्य पूरा कर वह संसार में पर्यटन करने लगा। वह स्थूणा नगरी में पुष्यमित्र नाम का ब्राह्मण हुआ। परिव्राजक दीक्षा ली। ७२ लाख पूर्व का आयुष्य पूरा कर सौधर्म देवलोक में उत्पन्न हुआ। फिर चैत्य सन्निवेश में अग्निद्योतक नामक ब्राह्मण हुआ। फिर ६४ लाख पूर्व का आयुष्य पूरा कर ईशान देवलोक में उत्कृष्ट स्थिति वाला देव बना। २६३. वहां से च्युत होकर वह मंदिर सन्निवेश में अग्निभूति नामक ब्राह्मण हुआ। उसका आयुष्य ५६ लाख पूर्व का था। वहां से सनत्कुमार देवलोक में उत्पन्न हुआ। फिर श्वेतविका नगरी में ४४ लाख पूर्व की आयुष्य वाला भारद्वाज नामक ब्राह्मण हुआ। वहां से मरकर माहेन्द्र देवलोक में उत्पन्न हुआ। २६४. वहां से च्युत होकर कुछ काल पर्यंत संसार में भ्रमण कर राजगृह नगर में ३४ लाख पूर्व की आयुष्य वाला स्थावर ब्राह्मण के रूप में उत्पन्न हुआ। उपरोक्त छहों भवों में वह परिव्राजक दीक्षा ग्रहण करता रहा। वहां से मरकर वह ब्रह्मदेवलोक में गया। वहां से च्युत होकर वह बहुत काल तक संसार में भ्रमण करता रहा। १,२. देखें परि. ३ कथाएं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org |
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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