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________________ १८२ आवश्यक नियुक्ति १३६/२. उत्तरकुरु से सौधर्म देवलोक में देव, वहां से महाविदेह क्षेत्र में वैद्यपुत्र। उसी दिन-राजपुत्र, श्रेष्ठीपुत्र, अमात्यपुत्र तथा सार्थवाहपुत्र की उत्पत्ति, कालान्तर में ये चारों मित्र हुए। १३६/३,४. वैद्यपुत्र के घर में कृमिकुष्ठ से उपद्रुत मुनि को देखकर मित्रों ने वैद्यपुत्र से कहा कि तुम मुनि की चिकित्सा करो। वैद्यपुत्र ने तैल दिया, वणिक् ने रत्नकंबल और गोशीर्ष चंदन देकर अभिनिष्क्रमण किया और उसी भव में अन्तकृत बना। १३६/५-८. साधु की चिकित्सा कर, श्रामण्य ग्रहण, उनका देवलोकगमन । पौंडरिकिणी देवलोक से च्युत होकर वे वैरसेन के पांच पुत्र बने-पहला वज्रनाभ, दूसरा बाहु, तीसरा सुबाहु, चौथा पीठ और पांचवां महापीठ। उनके पिता वैरसेन तीर्थंकर बने। वे पांचों पिता के पास प्रव्रजित । वज्रनाभ ने १४ पूर्व तथा शेष चार ने ग्यारह अंग पढ़े। बाहु वैयावृत्त्य और सुबाहु कृतिकर्म में संलग्न हुआ। तीर्थंकर द्वारा भोगफल का कथन और बाहु की प्रशंसा। इससे पीठ और महापीठ को अप्रीति। पहले पुत्र वज्रनाभ ने बीस स्थानों से तीर्थंकरत्व की प्राप्ति की। १३६/९-११. तीर्थंकरत्व की प्राप्ति के ये बीस सूत्र हैं१. अर्हत् का गुणोत्कीर्तन। ११. आवश्यक आदि अवश्यकरणीय संयमानुष्ठान । २. सिद्ध की स्तवना। १२. व्रतों का निरतिचार पालन। ३. प्रवचन पर आस्था । १३. क्षण-लव-में ध्यान तथा भावना का सतत आसेवन । ४. गुरु-भक्ति । १४. तप-यथाशक्ति तपस्या करना। ५. स्थविर-सेवा। १५. त्याग-साधु को प्रासुक एषणीय दान । ६. बहुश्रुत-पूजा। १६. दस प्रकार का वैयावृत्त्य। ७. तपस्वी का अनुमोदन। १७. गुरु आदि को समाधि देना। ८. अभीक्ष्ण-अनवरत ज्ञानोपयोग। १८. अपूर्वज्ञानग्रहण। ९. निरतिचार सम्यक्त्व। १९. श्रुतभक्ति। १०. ज्ञान आदि का विनय। २०. प्रवचन की प्रभावना। १३६/१२. प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर ने उपर्युक्त सारे स्थानों का स्पर्श किया। मध्यवर्ती तीर्थंकरों ने एकदो-तीन अथवा सभी स्थानों का स्पर्श किया। १३६/१३. प्रश्न है कि तीर्थंकरनामगोत्र कर्म का वेदन कैसे होता है ? इसका समाधान यह है-अग्लानभाव से धर्मदेशना आदि देने के द्वारा उसका वेदन होता है। तीर्थंकर इसका बंध वर्तमान भव से पूर्व के तीसरे भव १. देखें परि. ३ कथाएं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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