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आवश्यक नियुक्ति
व्यक्ति के भीतर संचरित हो सकें और अहंकार का विलय हो सके। जयधवला के अनुसार तीर्थंकर को नमस्कार करना वंदना है। उत्तराध्ययन सूत्र में वंदना से जीव सौभाग्य, अप्रतिहत आज्ञाफल और सबके मन में अपने प्रति अनुकूलता का भाव पैदा करता है। साथ ही निम्न गोत्र का क्षय कर उच्च गोत्र का बंधन करता है।' चौथे प्रतिक्रमण में कृत दोषों की आलोचना की जाती है, जिससे प्रतिदिन होने वाले प्रमाद का परिष्कार और शोधन होता रहे। प्रतिक्रमण से जीव व्रत के छिद्रों को ढकता है। कायोत्सर्ग से संयमी जीवन के व्रणों की चिकित्सा होती है, साथ ही भेदविज्ञान की धारणा पुष्ट होती है। कायोत्सर्ग व्यक्ति को निर्धार और प्रशस्त ध्यान में उपयुक्त करता है।' आगमों में कायोत्सर्ग को सब दुःखों से मुक्त करने का हेतु माना है ।" अंतिम प्रत्याख्यान आवश्यक के माध्यम से भविष्य में गलती न करने के संकल्प की अभिव्यक्ति की जाती है, जिससे इच्छाओं का निरोध तथा संवर की शक्ति का विकास होता रहे। प्रत्याख्यान गुणधारण करने का उत्तम उपाय है। आचार्य कुंदकुंद के अनुसार आवश्यक के बिना श्रमण चारित्र से भ्रष्ट हो जाता है। आवश्यक में पाठ-भेद एवं विधि-भेद
ऋषभ के समय में प्रतिदिन आवश्यक होता था, बीच के बावीस तीर्थंकरों के मुनि स्खलना होने पर आवश्यक करते थे, इस उल्लेख से यह तो स्पष्ट है कि आवश्यक की परम्परा अति प्राचीन है लेकिन इसका स्वरूप बदलता रहा है। वर्तमान में आवश्यक का जो पाठ मिलता है, उसमें भिन्न-भिन्न परम्पराओं में काफी अंतर है । आवश्यक की विधि में भी मंदिरमार्गी, स्थानकवासी, तेरापंथी और दिगम्बर परम्परा में बहुत अंतर आ गया है। वर्तमान में इसमें मूल कितना है और प्रक्षेप कितना है, इसका निर्णय निर्युक्तिकार द्वारा की गयी पाठों की व्याख्या के आधार पर किया जा सकता है ।
निर्युक्ति की व्याख्या के अनुसार कुछ परम्पराओं में प्रतिक्रमण से पूर्व किए जाने वाले चैत्य-वंदन आदि तथा नमोत्थुणं के बाद किए जाने वाले सज्झाय, स्तवन, स्तोत्र आदि आवश्यक के अन्तर्गत नहीं हैं, इनका बाद में प्रक्षेप हुआ है क्योंकि गुजराती, अपभ्रंश, राजस्थानी या हिन्दी का पाठ मौलिक नहीं माना जा सकता। मूल आवश्यक में भी इनका उल्लेख नहीं है ।
सामान्य जन द्वारा प्राकृत भाषा को न समझने की कठिनाई देखकर आचार्य तुलसी ने श्रावक प्रतिक्रमण के अतिचारों का हिन्दी पद्यों में सरस रूपान्तरण कर दिया तथा साधु प्रतिक्रमण के अतिचारों का भी न केवल हिन्दी रूपान्तरण किया बल्कि उन अतिचारों को आधुनिक मनोविज्ञान के संदर्भ में भी प्रस्तुत किया है।
मूल पाटियों के रूपान्तरण से मौलिकता की सुरक्षा नहीं रहती इसलिए उनको यथावत् रखा है। जैसे मंत्रों का अनुवाद उतना प्रभावक नहीं होता, वैसे ही आवश्यक के मूलपाठ का अनुवाद नहीं किया । दूसरी बात अनुवाद से आवश्यक की विधि में भी एकरूपता नहीं रहती । अतिचार तो आत्मालोचन के हेतु अतः किसी भी भाषा में बोले जा सकते हैं। ऐसा संभव लगता है कि अतिचारों का स्वरूप समय-समय बदलता रहा है। बहुश्रुत आचार्य देश, काल और परिस्थिति के अनुसार इनमें परिवर्तन करते रहे हैं ।
१. तित्थयरस्स णमंसणं वंदणा नाम ।
२. उ. २९ / ११ ।
३. उ. २९ / १२; पडिक्कमणेणं वयछिद्दाई पिइ ।
४. उ. २९ / १३ ।
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५. उ२६/४६ ।
६. उ. २९/१४; पच्चक्खाणेणं आसवदाराई निरुंभइ ।
७. नियमसार गा. १४८;
आवासएण होणो, पब्भट्ठो होदि चरणदो समणो ।
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