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आवश्यक नियुक्ति
१६१ गमिकश्रुत, अंगप्रविष्टश्रुत-ये सात तथा इनके प्रतिपक्ष ये सात-अनक्षरश्रुत, असंज्ञिश्रुत, असम्यक्श्रुत, अनादिश्रुत, अपर्यवसितश्रुत, अगमिक श्रुत, अनंगप्रविष्टश्रुत। २०. उच्छ्वास, नि:श्वास, थूकना, खांसना, छींकना, सूंघना, नाक साफ करना, अनुस्वार युक्त उच्चारण अथवा नाक से होने वाली ध्वनि करना, सीटी बजाना-ये सब अनक्षरश्रुत कहलाते हैं। २१. बुद्धि के आठ गुणों से आगम-शास्त्रों का अर्थ-ग्रहण होता है। पूर्वज्ञान के विशारद तथा धीर मुनि आगम ज्ञान के ग्रहण को ही श्रुतज्ञान की उपलब्धि कहते हैं। २२. बुद्धि के आठ गुण ये हैं.--१. सुनने की इच्छा, २. प्रतिपृच्छा ३. सुनना ४. ग्रहण करना ५. पर्यालोचन करना ६. निश्चय करना ७. धारण करना ८. उसका सम्यक् आचरण करना। २२/१. श्रवणविधि के सात अंग इस प्रकार हैं- १. मौन रहकर सुनना २. हुंकारा देना ३. बाढक्कार 'यह ऐसा ही है' यों कहना ४. प्रतिपृच्छा करना ५. मीमांसा करना ६. सुने हुए प्रसंग का पारायण करना ७. कहे हुए का पुनः कथन करने का सामर्थ्य प्राप्त कर लेना। २२/२. अनुयोग (व्याख्या) की विधि इस प्रकार है-प्रथम बार में सूत्र के अर्थ का बोध, दूसरी बार में
१. अक्षर-अनक्षर श्रुत-अक्षर तथा संकेत के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से।
संज्ञि-असंज्ञिश्रुत-मानसिक विकास और अमनस्क के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से। सम्यक्-असम्यक्श्रुत-प्रवचनकार और ज्ञाता की सम्यक् या मिथ्यादृष्टि के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से। सादि-अनादिश्रुत-कालावधि के आधार पर होने वाले ज्ञान की अपेक्षा से। गमिक-अगमिकश्रुत-रचना-शैली की अपेक्षा से।
अंग-अनंगश्रुत-ग्रंथकार की अपेक्षा से। २. विशिष्ट अभिप्रायपूर्वक उच्छ्वास आदि का प्रयोग होता है, तब वह श्रुतज्ञान का कारण बनता है। जो सुना जाता है, वह
श्रुत है। उच्छ्वास आदि श्रवण के विषय हैं अतः श्रुत हैं। सिर और हाथ की चेष्टा श्रव्य नहीं है अतः श्रुत नहीं है। उच्छ्वास-नि:श्वास आदि वाक्जन्य प्रयत्न से उत्पन्न नहीं हैं अतः भाषात्मक या अक्षरात्मक नहीं हैं लेकिन ये
श्रुतज्ञान के कारण हैं अतः इन्हें अनक्षर श्रुत माना गया है, (विभामहे गा. ५०२, ५०३)। ३. आचार्य हरिभद्र ने अभिधान चिंतामणि (२/२२४, २२५) में बुद्धि के आठ गुणों का कुछ भिन्न रूप में संकेत किया
है-१. शुश्रूषा २. श्रवण ३. ग्रहण ४. धारणा ५. ऊहा ६. अपोह ७. अर्थविज्ञान ८. तत्त्वज्ञान । ४. शुश्रूषा-सूत्र को गुरुमुख से सविनय सुनने की इच्छा करना।
प्रतिपृच्छा-गृहीत श्रुत में शंकित अथवा विस्मृत शब्दों को पुनः पुनः पूछना। श्रवण-सुत्र के अर्थ को सुनना। ग्रहण-सूत्र और अर्थ का अध्ययन कर श्रुत का सम्यक् ग्रहण करना। ईहा-सूत्र और अर्थपदों की मार्गणा, गवेषणा करना। अवाय-'यह ऐसा ही है, अन्य प्रकार से नहीं'-इस प्रकार अन्वय व्यतिरेकी धर्मों से पदार्थ का निश्चय करना। धारण-परिवर्तना और अनुप्रेक्षा के द्वारा उसका स्थिरीकरण करना। करण-श्रुत में प्रतिपादित अनुष्ठान का सम्यक् आचरण करना (आवहाटी १ पृ. १७, १८)।
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