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आवश्यक नियुक्ति कृति है और न ही गणधर की। तीर्थंकर की कृति इसलिए नहीं क्योंकि वे अर्थ का उपदेश मात्र करते हैं, सूत्र नहीं रचते। आवश्यक सूत्र गणधर रचित न होने का एक कारण यह है कि इस सूत्र की गणना अंगबाह्य सूत्र में है अतः यह सुधर्मा के बाद किसी बहुश्रुत आचार्य द्वारा रचित माना जाना चाहिए।
आवश्यक सूत्र उतना ही पुराना होना चाहिए जितना नमस्कार महामंत्र क्योंकि आवश्यक नियुक्ति में नमस्कार मंत्र के पांचों पदों की लगभग १३९ गाथाओं में विस्तृत व्याख्या है। इससे पूर्ववर्ती किसी ग्रंथ में नमस्कार मंत्र पर इतना विस्तृत वर्णन नहीं मिलता। आवश्यक नियुक्ति में ६४५/२ गाथा में पंच परमेष्ठी के नमस्कारपूर्वक सामायिक करने का निर्देश है। यद्यपि इस गाथा से यह फलित निकलता है कि नमस्कार मंत्र भी उतना ही पुराना होना चाहिए जितना सामायिक सूत्र या आवश्यक सूत्र। लेकिन यह गाथा मूल नियुक्ति की न होकर भाष्यकार की होनी चाहिए क्योंकि चूर्णि में इसकी कोई व्याख्या नहीं है तथा टीकाकार ने इसके लिए संबंध गाथा का संकेत किया है। आवश्यक के कर्ता
आवश्यक के कर्ता के बारे में इतिहास मौन है और विद्वानों में भी मतैक्य नहीं है। यह सूत्र किसी एक स्थविर आचार्य की कृति है अथवा अनेक आचार्यों की, इस बारे में स्पष्टतया कुछ नहीं कहा जा सकता। कुछ विद्वान् इसे किसी एक आचार्य की कृति नहीं मानते। आचार्य भद्रबाहु के सामने भी इसके कर्तृत्व के बारे में कोई जानकारी नहीं थी अन्यथा वे दशवैकालिक की भांति इसके कर्ता के नाम का उल्लेख भी अवश्य करते। दशवैकालिक नियुक्ति में उन्होंने आचार्य शय्यंभव को दशवैकालिक के कर्ता के रूप में याद किया है। गणधरवाद की भूमिका में पंडित मालवणियाजी ने आवश्यक के कर्ता के बारे में विचार करते हए इसे गणधर प्रणीत सिद्ध करने का प्रयत्न किया है।
आचार्य भद्रबाहु ने जिन दश ग्रंथों पर नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा की है, उन ग्रंथों को यदि कालक्रम से रचित मानें तो आवश्यक आचार्य शय्यंभव से पूर्व किसी स्थविर की कृति होनी चाहिए। लेकिन यह विकल्प उचित प्रतीत नहीं होता क्योंकि इसमें उत्तराध्ययन के बाद आचारांग का क्रम है। आचारांग प्रथम अंग आगम है तथा गणधर द्वारा संदृब्ध है अत: नियुक्तियां लिखने की प्रतिज्ञा से जिन आगमों का उल्लेख किया गया है, उन्हें ऐतिहासिक क्रम से रचित नहीं माना जा सकता। आचारांग टीका में उल्लेख मिलता है कि 'आवश्यकान्तर्भूतश्चतुर्विंशतिस्तवारातीयकालभाविना भद्रबाहुस्वामिनाऽकारि'३ आचार्य शीलांक के इस उद्धरण से स्पष्ट है चतुर्विंशतिस्तव की रचना आचार्य भद्रबाहु द्वारा की गयी। इससे यह फलित निकलता है कि आवश्यक किसी एक आचार्य की रचना न होकर आचार्य भद्रबाहु एवं उनके समकालीन अनेक बहुश्रुत, स्थविर आचार्यों के चिंतन एवं ज्ञान की फलश्रुति है। चूंकि इस ग्रंथ को आत्मालोचन का उत्कृष्ट ग्रंथ बनाना था इसलिए अनेक आचार्यों का सुझाव और चिंतन का योग अपेक्षित था। यदि आवश्यक सूत्र किसी एक आचार्य की कृति होती तो दशवैकालिक के कर्ता की भांति इसके कर्ता का नाम भी अत्यंत प्रसिद्ध होता क्योंकि यह प्रतिदिन सुबह और सायं स्मरण की जाने वाली कृति है। निष्कर्षतः आवश्यक को अनेक आचार्यों की संयुक्त कृति स्वीकार करना चाहिए। १. दशनि १३, १४। २. गणधरवाद, भूमिका पृ. ५-१० । ३. आटी पृ. ५६।
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