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________________ १८ आवश्यक नियुक्ति इसका नाम आवश्यक पड़ा। आचार्य तुलसी ने इसे ध्रुवयोग के अन्तर्गत माना है। आवश्यक का एक नाम प्रतिक्रमण भी प्रसिद्ध है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के तीर्थ में सायं और प्रातः दोनों समय प्रतिक्रमण करना अनिवार्य है क्योंकि उनके शासन में सप्रतिक्रमण धर्म का निरूपण था। ___अनुयोगद्वार सूत्र में आवश्यक के चार निक्षेप मिलते हैं-१. नाम २. स्थापना ३. द्रव्य ४. भाव।' द्रव्य आवश्यक का स्वरूप बताते हुए कहा है कि जो श्रमण श्रामण्य योग्य गुणों से रहित हैं, छह कायों के प्रति करुणा रहित हैं, हाथी और घोड़े की भांति निरंकुश हैं, आसक्त हैं तथा तीर्थंकर देव की आज्ञा के विपरीत स्वच्छंद होकर विहार करते हैं, उनका आवश्यक लोकोत्तरिक द्रव्य आवश्यक है। इसके विपरीत जो तच्चित्त, तन्मय एवं एकाग्र होकर दोनों समय आवश्यक करता है, वह लोकोत्तरिक भाव आवश्यक है। द्रव्य आवश्यक में मन कहीं और रहता है। केवल मौखिक रूप से आवश्यक का उच्चारण होता है। इसमें मन की एकाग्रता आवश्यक के साथ नहीं जुड़ती, मात्र बाह्य क्रिया चलती है। भाव आवश्यक में क्रिया के साथ चेतना जुड़ जाती है। आवश्यक के एकार्थक अनुयोगद्वार सूत्र में आवश्यक के आठ पर्यायवाची नाम मिलते हैं- १. आवश्यक, २. अवश्यकरणीय, ३. ध्रुवनिग्रह, ४. विशोधि, ५. अध्ययनषट्कवर्ग ६. न्याय, ७. आराधना, ८. मार्ग। ये एकार्थक न होकर आवश्यक के स्वरूप, महत्त्व एवं उसके विविध गुणों को प्रकट करने वाले हैं - आवश्यक-ज्ञानादि गुणों को वश में करने वाला अथवा भोग और कषाय को चारों ओर से वश में करने वाला। 'आवस्सग' की 'आवासक' संस्कृत छाया करके इसका एक अर्थ गुणों से आत्मा को वासित करना भी किया गया है। अवश्यकरणीय-अवश्यकरणीय अनुष्ठान । ध्रुवनिग्रह-अनादि संसार का निग्रह करने वाला। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार आवश्यक दिनचर्या और रात्रिचर्या का निश्चित रूप से नियमन करने वाला है, इसलिए इसका नाम ध्रुवनिग्रह है। दशवैकालिक सूत्र में मुनि के लिए ध्रुवयोग का विधान है। आवश्यक भी ध्रुवयोग का एक अंग १. विभामहे गा. ८७३, अनुद्वा. २८/ गा.२; समणेण सावएण य, अवस्सकायव्वयं हवइ जम्हा। अंतो अहो निसिस्स उ, तम्हा आवस्सयं नाम ॥ २. आवनि. १२४४; (अप्रकाशित संख्या आवनि ८६८)। सपडिक्कमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स य जिणस्स। मज्झिमयाण जिणाणं, कारणजाए पडिक्कमणं॥ ३. अनुद्वा.८-२७। ४. अनुद्वा. २१। ५. अनुद्वा. २७। ६. विभामहे गा. ८७२, अनुद्वा. २८/गा. १; आवस्सयं अवस्सकरणिज्जं, धुवनिग्गहो विसोही य। अज्झयणछक्कवग्गो, नाओ आराहणा मग्गो॥ ७. विभामहेटी. पृ. २०७। ८. अणुओगदाराई पृ. ३८। ९. दश. १०/१०। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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