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________________ १६ आवश्यक नियुक्ति अनादिकाल से ज्ञान की परम्परा के रूप में वे संक्रमित होते रहे हैं। विद्वानों ने वर्तमान में उपलब्ध जैन आगमों का काल-निर्धारण किया है फिर भी नंदीसूत्र में जहां समवायांग का परिचय दिया है, वहां स्पष्ट उल्लेख है कि द्वादशांग रूप गणिपिटक कभी नहीं था, ऐसा नहीं कहना चाहिए। कभी नहीं है, ऐसा नहीं कहना चाहिए तथा कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं कहना चाहिए, गणिपिटक था, है और रहेगा। यह ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है। इसका तात्पर्य यह है कि द्वादशांगी आर्थिक रूप से अनादि है पर शाब्दिक रूप से परिवर्तित होती रहती है। सत्य एक ही होता है पर उसकी प्रतिपादनशैली हर युग में भिन्न होती है। बृहत्कल्पभाष्य में शिष्य जिज्ञासा प्रस्तुत करता है कि नय, निक्षेप, निरुक्त आदि का जो व्याख्यान ऋषभ आदि २३ तीर्थंकरों ने प्रस्तुत किया, वही वर्णन महावीर ने कैसे किया क्योंकि २३ तीर्थंकरों की शरीर-अवगाहना बड़ी थी और महावीर सप्तरनि प्रमाण ही थे। इसका उत्तर देते हुए भाष्यकार कहते हैं कि शरीर-प्रमाण में भिन्नता होने पर भी धृति, संहनन और ज्ञान में सभी तीर्थंकर तुल्य हैं अतः प्रज्ञापनीय भाव में कोई अंतर नहीं रहता। कालभेद से भी प्रज्ञापनीय भावों के प्रतिपादन में कोई अंतर नहीं रहता। केवल ज्ञाताधर्मकथा के आख्यान, ऋषिभाषित और प्रकीर्णक आदि सूत्रों में अंतर आता है। आयारो में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि जितने अर्हत् अतीत में हुए, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे, वे सभी इसी सत्य की रते हैं कि किसी भी प्राण, भूत, जीव एवं सत्त्व की हत्या मत करो, उनके ऊपर अपनी सत्ता मत जमाओ, उनको गुलाम मत बनाओ और उनको सताओ मत, यही धर्म ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है और सनातन है। वर्तमान में उपलब्ध आगमों के रचनाकाल के विषय में अनेक मंतव्य मिलते हैं। फिर भी सामान्यतया कहा जा सकता है कि महावीर-काल से लेकर वि. सं. ५२३ तक भिन्न-भिन्न कालों में आगम ग्रंथों का नि!हण एवं रचना हुई है। आगमों के कर्तृत्व के बारे में विद्वानों में काफी ऊहापोह है। अंगसाहित्य तीर्थंकरों द्वारा उद्गीर्ण और गणधरों द्वारा संदृब्ध है। लेकिन ठाणं एवं समवाओ जैसे अंग आगमों में अनेक विषय बाद में प्रक्षिप्त हुए हैं। अनंग प्रविष्ट में कुछ ग्रंथ स्थविर आचार्यों द्वारा प्रणीत हैं, जैसे-प्रज्ञापना-सूत्र आदि । कुछ पूर्वो से उद्धृत हैं, जैसे-दशवैकालिक सूत्र आदि। सूत्र प्रवर्तन का क्रम आवश्यक नियुक्ति में सूत्र-प्रवर्तन के क्रम का सुंदर निरूपण हुआ है। अर्हत् भगवान् अर्थ रूप में तत्त्वों और सत्य का निरूपण करते हैं तथा गणधर उसे शासनहित के लिए सूत्र रूप में गुम्फित करते हैं। इसे रूपक के माध्यम से बताते हुए नियुक्तिकार कहते हैं कि तप, नियम और ज्ञान के वृक्ष पर आरूढ़ होकर अमितज्ञानी तीर्थंकर भव्यजनों को संबोध देने हेतु ज्ञान की वर्षा करते हैं, गणधर अपने बुद्धिमय पट से उस सम्पूर्ण ज्ञान-वर्षा को ग्रहण कर लेते हैं। तीर्थहित एवं प्रवचनहित के लिए गणधर उस वाणी को सूत्र १. नंदी १२६। २. बृभा. २०२-२०४। ३. आयारो ४/१। ४. आवनि ८६; अत्थं भासति अरहा, सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं। सासणस्स हियट्ठाए, ततो सुत्तं पवत्तई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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