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४३६ / २४. वायणपडिसुणणाए, उसे सुत्त-अत्थकहणाए । अवितहमेतं ति तहा, पडिसुणणाए तहक्कारो ॥
निउणं ॥
४३६ / २५. जस्स य इच्छाकारो, मिच्छाकारो य परिचिया दो वि । तइओ य तहक्कारो, न 'दुल्लभा सोग्गती" तस्स ॥ ४३६/२६. आवस्सियं च णिंतो, जं च अहंतो निसीहियं कुणति । एवं इच्छं नाउं, गणिवर! तुब्भंतिए ४३६/२७. आवस्सियं च णिंतो, जं च अइंतो निसीहियं वंजणमेयं तु दुहा, अत्थो पुण होति सो ४३६/२८. एगग्गस्स पसंतस्स न होंति रियादओ गुणा गंतव्वमवस्सं कारणम्मि आवस्सिया
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१. य तहक्कारो ( अ, म) ।
२. दुल्लहा सुग्गई (ब, म) 1
३. तुज्झतिए (म) ।
४. इरियाइया ( अ, हा, ला, दी) ।
४३६/२९. आवस्सिया उ आवस्सएहि सव्वेहि जुत्तजोगिस्स । मण-वयण- कायगुत्तिंदियस्स" आवस्सिया होति ॥
५. सूत्रे इंद्रियशब्दस्य गाथाभंगभयाद् व्यवहितउपन्यासः (मटी) । ६. इस गाथा के स्थान पर हा, दी, म और चूर्णि में 'पाठांतरं वा' कहकर एक अन्य गाथा का संकेत दिया गया है। हरिभद्र तथा मलयगिरि ने ' व्यञ्जनभेदनिबन्धनमधिकृत्य व्याख्यातम्' का उल्लेख किया है। पाठांतर रूप गाथा होने से हमने इसे मूल निगा के क्रमांक में नहीं जोड़ा हैं। अ और ला प्रति में यह पाठांतर के रूप में है। प्रकाशित हा, दी और म में यह निगा के क्रमांक में निर्दिष्ट है। स्वो और महे में यह गाथा नहीं है। हा में यह गाथा इस प्रकार है
४३६ / ३० सेज्जं ठाणं च जहिं चेतेति तहिं निसीहिया होति । जम्हा तत्थ निसिद्धो, तेणं तु निसीहिया होति ॥ ४३६/३१. आपुच्छणा य कज्जे, पुव्वनिसिद्धेण' होति पडिपुच्छा । पुव्वगहिएण छंदण, निमंतणा होयगहिणं ॥ ४३६ / ३२. उवसंपया य तिविहा, णाणे तह दंसणे चरित्ते य । दंसण-नाणे तिविहा, दुविहा य चरित्तअट्ठाए || ४३६ / ३३. वत्तणा संधणा चेव, गहणं सुत्तत्थतदुभए वेयावच्चे खमणे, काले
चेव । यः ॥
आवकहाइ
कुणति ।
चेव ॥
होंति ।
होति ॥
७.
८.
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आवश्यक नियुक्ति
सेनं ठाणं च जदा, चेतेति तया निसीहिया होइ। जम्हा तदा निसेहो, निसेहमइया य सा जेणं ॥ १ ॥ मटी और चूर्णि में भी कुछ पाठान्तर के साथ यह गाथा मिलती है।
इस गाथा के बाद आवस्सियं च (हाटीभा १२० ) जो होइ निसिद्धप्पा (हाटीभा १२१) आवस्सयम्मि...... (हाटीभा १२२) ये तीन मूल भाष्य गाथाएं सभी हस्तप्रतियों तथा टीकाओं में मिलती हैं। स्वो में ये गाथाएं पादटिप्पण में दी हुई हैं। उ ( स, हा, दी) ।
पुव्वनिउत्तेण (अपा, लापा, हाटीपा, मटीपा, बपा) । आवक्क (म) ।
९.
१०. गाथा के पहले और चौथे चरण में अनुष्टुप् छंद है।
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