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________________ १०६ ४३६ / २४. वायणपडिसुणणाए, उसे सुत्त-अत्थकहणाए । अवितहमेतं ति तहा, पडिसुणणाए तहक्कारो ॥ निउणं ॥ ४३६ / २५. जस्स य इच्छाकारो, मिच्छाकारो य परिचिया दो वि । तइओ य तहक्कारो, न 'दुल्लभा सोग्गती" तस्स ॥ ४३६/२६. आवस्सियं च णिंतो, जं च अहंतो निसीहियं कुणति । एवं इच्छं नाउं, गणिवर! तुब्भंतिए ४३६/२७. आवस्सियं च णिंतो, जं च अइंतो निसीहियं वंजणमेयं तु दुहा, अत्थो पुण होति सो ४३६/२८. एगग्गस्स पसंतस्स न होंति रियादओ गुणा गंतव्वमवस्सं कारणम्मि आवस्सिया Jain Education International १. य तहक्कारो ( अ, म) । २. दुल्लहा सुग्गई (ब, म) 1 ३. तुज्झतिए (म) । ४. इरियाइया ( अ, हा, ला, दी) । ४३६/२९. आवस्सिया उ आवस्सएहि सव्वेहि जुत्तजोगिस्स । मण-वयण- कायगुत्तिंदियस्स" आवस्सिया होति ॥ ५. सूत्रे इंद्रियशब्दस्य गाथाभंगभयाद् व्यवहितउपन्यासः (मटी) । ६. इस गाथा के स्थान पर हा, दी, म और चूर्णि में 'पाठांतरं वा' कहकर एक अन्य गाथा का संकेत दिया गया है। हरिभद्र तथा मलयगिरि ने ' व्यञ्जनभेदनिबन्धनमधिकृत्य व्याख्यातम्' का उल्लेख किया है। पाठांतर रूप गाथा होने से हमने इसे मूल निगा के क्रमांक में नहीं जोड़ा हैं। अ और ला प्रति में यह पाठांतर के रूप में है। प्रकाशित हा, दी और म में यह निगा के क्रमांक में निर्दिष्ट है। स्वो और महे में यह गाथा नहीं है। हा में यह गाथा इस प्रकार है ४३६ / ३० सेज्जं ठाणं च जहिं चेतेति तहिं निसीहिया होति । जम्हा तत्थ निसिद्धो, तेणं तु निसीहिया होति ॥ ४३६/३१. आपुच्छणा य कज्जे, पुव्वनिसिद्धेण' होति पडिपुच्छा । पुव्वगहिएण छंदण, निमंतणा होयगहिणं ॥ ४३६ / ३२. उवसंपया य तिविहा, णाणे तह दंसणे चरित्ते य । दंसण-नाणे तिविहा, दुविहा य चरित्तअट्ठाए || ४३६ / ३३. वत्तणा संधणा चेव, गहणं सुत्तत्थतदुभए वेयावच्चे खमणे, काले चेव । यः ॥ आवकहाइ कुणति । चेव ॥ होंति । होति ॥ ७. ८. For Private & Personal Use Only आवश्यक नियुक्ति सेनं ठाणं च जदा, चेतेति तया निसीहिया होइ। जम्हा तदा निसेहो, निसेहमइया य सा जेणं ॥ १ ॥ मटी और चूर्णि में भी कुछ पाठान्तर के साथ यह गाथा मिलती है। इस गाथा के बाद आवस्सियं च (हाटीभा १२० ) जो होइ निसिद्धप्पा (हाटीभा १२१) आवस्सयम्मि...... (हाटीभा १२२) ये तीन मूल भाष्य गाथाएं सभी हस्तप्रतियों तथा टीकाओं में मिलती हैं। स्वो में ये गाथाएं पादटिप्पण में दी हुई हैं। उ ( स, हा, दी) । पुव्वनिउत्तेण (अपा, लापा, हाटीपा, मटीपा, बपा) । आवक्क (म) । ९. १०. गाथा के पहले और चौथे चरण में अनुष्टुप् छंद है। www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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