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________________ आवश्यक नियुक्ति १४०. १४१. १४१/१. १४२. Jain Education International १४३. १४४. य। जण्णूसव समवाए, मंगले कोउगे त्ति वत्थे गंधे य मल्ले य अलंकारे तहेव य' ॥ चोलोवण विवाहे य झावणा" थूभ संदे य संबोधण अन्नलिंगे चित्त णंत कासवए । पंचेव य सिप्पाई, घड लोहे एक्के क्कस्स य एत्तो, वीसं वीसं भवे भेदा ॥ उसभचरियाहिगारे, सव्वेसिं जिणवराण सामण्णं । संवोहणाइ बोनुं, वोच्छं पत्तेयमुसस्स ॥ दत्तिया छेलावणग* जोवोबलभ सुतलंभे, छउमत्थ तवोकम्मे, १. मंगले त्ति एकार: अलाक्षणिको मुखसुखोच्चारणार्थ : (हाटी) । २. स्वो १९६ / ९६०७ । ३. दत्तिय (अ) । परिच्चाए, पत्तेयं उवहिम्म य। कुलिंगे य, गामायार परीसहे" ॥ मडगपूयणा । पुच्छणा ॥ पच्चक्खाणे य संजमे । २ उप्पया नाण संगहे ॥ ४. झामणा (ला) । ५. छेलापनकमिति देशीवचनमुत्कृष्टबालक्रीडापनकं सेण्टिताद्यर्थवाचकमिति (हाटी) । ६. स्वो १९७/१६०८, इस गाथा के बाद प्रायः सभी हस्तप्रतियों में आसी व कंदहारा से लेकर पक्खेव डहणमोसहि तक की सात मूल भाष्य की गाथाएं मिलती हैं। (देखें स्वो १६०९ - १६१५, को १६१९ - १६२५, हाटी मूभा. ५-११) ये गाथाएं हाटी एवं दी में मूल भाष्य के क्रमांक में हैं लेकिन प्रकाशित मटी (२०३-२०९) में ये निगा के क्रमांक में निर्दिष्ट हैं। ये क्रमांक संपादक द्वारा लगाए गए हैं अतः इनको प्रमाण नहीं माना जा सकता। इन सात गाथाओं के बाद निम्न दो अन्यकर्तृकी गाथाएं प्रायः सभी हस्तप्रतियों में मिलती हैं मिंठेण हत्थिपिंडे, मट्टियपिंडं गहाय कुडगं च । निव्वत्तेसि य तइया, जिणोवइट्टेण मग्गेण ॥ निव्वत्तिए समाणे, भण्णइ राया तओ बहुजणस्स एवइया भे कुव्वह, पर्यट्टियं पढमसिप्पं तु ॥ १०. x ( अ ) । ११. स्वो १९९/१६३७, १४३ से १४७ तक की ५ गाथाओं का चूर्णि में संकेत एवं व्याख्या नहीं है। १२. स्वो २०० / १६३८ । ७. णंतमिति देशीवचनं (हाटी), णंतमिति देशीवचनं वस्त्रवाचकं (मटी), अनन्तं देश्ययुक्त्या वस्त्रं (दी) । ८. स्वो १६१६, यह गाथा सभी टौकाओं में निगा के क्रम में व्याख्यात है किन्तु यह गाथा भाष्य की ही होनी चाहिए क्योंकि जब 'आहारद्वार' की सात गाथाओं में तथा अन्य 'कर्म' आदि द्वारों की १९ गाथाओं में भाष्यकार ने व्याख्या की है तब केवल 'शिल्पद्वार' की व्याख्या करने वाली गाथा को ही निगा क्यों मानी जाए? यह भी भाष्यकृद् ही होनी चाहिए। स्वो और को दोनों भाष्यों में भी यह भाष्य गाथा के क्रम में व्याख्यात है। चूर्णि इस गाथा का प्रतीक नहीं है किन्तु संक्षिप्त व्याख्या है। इस गाथा के बाद कम्मं किसि........से लेकर किंचिच्च..... (स्वो १६१७- १६३५, को १६२७-१६४५, हाटी मूभा. गा. १२- ३० ) ये १८ गाथाएं मूभा. व्या. उल्लेख के साथ प्रायः सभी हस्तप्रतियों में मिलती हैं। हाटी और दीपिका में ये मूलभाष्य के क्रम में व्याख्यात हैं किन्तु मटी में निगा (गा. २११-२९ ) के क्रम में व्याख्यात हैं। यह संख्या संपादक द्वारा लगाई गई प्रतीत होता है। इनमें कुछ भाष्य गाथाएं चूर्णि में भी व्याख्यात हैं। ९. स्वो १९८ / १६३६, इस गाथा का चूर्णि में प्रतीक नहीं है किन्तु संक्षिप्त भावार्थ दिया हुआ है। ४९ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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