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________________ ४६ आवश्यक नियुक्ति १३६/१०. दंसण विणए आवस्सए य सीलव्वते निरइयारे। खण-लव तवच्चियाए, वेयावच्चे समाधी य॥ १३६/११. अप्पुव्वनाणगहणे, सुतभत्ती पवयणे पभावणया। एतेहिं कारणेहिं. तित्थयरत्तं लभति जीवो ॥ १३६/१२. पुरिमेण पच्छिमेण य, एते सव्वे वि फासिता ठाणा। मज्झिमएहि जिणेहिं, एगं दो तिण्णि सव्वे वा ।। १३६/१३. तं च कहं वेइज्जति, अगिलाए धम्मदेसणादीहिं। बज्झति तं तु भगवतो, ततियभवोसक्कइत्ताणं ॥ १३६/१४. नियमा मणुयगतीए', इत्थी पुरिसेयरो व सुहलेसो। आसेवियबहुलेहिं, वीसाए अन्नयरएहि ॥ १३६/१५. उववातो सव्वटे, सव्वेसिं पढमओ चुतो उसभो। रिक्खेणासाढाहिं१२, असाढबहुले चउत्थीए१३ ।। १३७. जम्मणे 'नाम वुड्डी य'१४, ‘जातीए सरणे इय' १५ । वीवाहे य अवच्चे य, अभिसेए रज्जसंगहे ६ ॥ १. ज्ञा. १/८/१८ गा. २, स्वो १७३/१५८३। २. पहाव (ब, म)। ३. सो उ, (ज्ञा. १/८/१८ गा. ३), स्वो १७४/१५८४ । ४. पढमेण (ला, को, स्वो)। स्वो १७५/१५८५, इस गाथा के बाद को (१५९३) में नाभी विणीय......(निगा १३६) का भाष्यगाथा के क्रम में पुनरावर्तन हुआ है। ततियभव ओसक्कतित्ताणं (च), १३६/१३, १४ ये दोनों गाथाएं टीकाओं में निगा के क्रम में व्याख्यात हैं किन्तु टीकाकार ने इनके लिए नियुक्तिगाथा का उल्लेख नहीं किया है। स्वो. में ये दोनों गाथाएं अप्राप्त हैं । संपादक ने नीचे टिप्पण में इनका उल्लेख किया है। को (१५९४, १५९५) में इन दोनों गाथाओं को भाष्यगाथा के क्रम में रखा है। महेटी में भी ये गाथाएं अप्राप्त हैं। रचना-शैली की दृष्टि से भी ये नियुक्ति गाथाएं प्रतीत नहीं होती। ७. “गई (अ)। ८. य (स, हा, दी)। ९. "लेस्सो (ला), "लेसे (अ)। १०. तीसाए (अ)। ११. यरेहिं (अ, रा, ला)। १२. खेण असा (म, स, हा ,दी)। १३. स्वो १७६/१५८६, यह गाथा प्रायः सभी व्याख्या ग्रंथो में उपलब्ध है किंतु पुनरुक्त-सी प्रतीत होती है क्योंकि गा. १३६ के अंतिम चरण में "विमाण सव्वदृसिद्धाओ" में इसी बात की संक्षेप में अभिव्यक्ति है। विषय की क्रमबद्धता की दृष्टि से भी १३६ के बाद १३७ वीं गाथा अधिक संगत प्रतीत होती है। १४. य विवड्डी य (हाटीपा, मटीपा)। १५. जातीसरणे ति य (ला), जाई सरणेण य (रा), जाई सरणेण ईय (स), जाइस्सरणे इय (म, ब)। १६. स्वो १७७/१५८७, यह द्वारगाथा है। इनमें सात द्वारों का उल्लेख है। इन सातों द्वारों की व्याख्या १६ गाथाओं में हुई है। १३७/ १-१६-ये १६ गाथाएं व्याख्यात्मक सी प्रतीत होती हैं। चूर्णि में इनमें कुछ गाथाओं की व्याख्या मिलती है तथा छप्पुव्व..... १३७/१०का प्रतीक मिलता है। कुछ गाथाओं के संकेत एवं व्याख्या दोनों नहीं मिलती। अन्य सभी व्याख्या ग्रंथों में ये निगा के क्रम में व्याख्यात हैं किन्तु इन सभी गाथाओं के लिए व्याख्याकारों ने अपनी व्याख्या में कहीं भी निगा का उल्लेख नहीं किया है। विषयक्रम एवं छंद की दृष्टि से भी १३७ के बाद १३८ वीं गाथा प्रसंगोचित लगती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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