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________________ आवश्यक नियुक्ति १३५/१६. पढम-बितियाण पढमा, ततिय चउत्थाण अभिणवा बितिया। पंचम छट्ठस्स य सत्तमस्स ततिया 'अभिणवा तु२॥ १३५/१७. सेसा' तु दंडनीती, माणवगनिहीउ होति' भरहस्स। 'उसभस्स गिहावासे, असक्कतो आसि आहारो'५ ॥ १३६. नाभी विणीयभूमी, मरुदेवी ‘उत्तरा य साढा य'६ । राया य वइरनाभो', विमाण सव्वट्ठसिद्धाओ ॥ १३६/१. धणसत्थवाहघोसण, जइगमणं अडविवासठाणं च। बहुवोलीणे वासे, चिंता घतदाणमासि तदा ॥ १. बीयाण (ब, रा, हा, दी), 'बितियस्स (चू)। २. अहिणवाओ (म), स्वो १६१/१५६९ । ३. सेसं (अ)। ४. हुंति (रा)। ५. गिहिवासे उसभस्स तु असक्कतो आसि आहारो (चू), स्वो १६२/१५७०, अ, ला प्रति और हाटी में इस गाथा के बारे में 'इयं मूलनियुक्तिगाथा' का संकेत है। यह गाथा १३५ वीं गाथा के शेष 'नीतिद्वार' की व्याख्या रूप है। इसके लिए मलयगिरि ने भाष्यगाथा का संकेत किया है । इसके बाद हस्तप्रतियों में परिभासणा (स्वो १५७१, को १५७८, हाटीमूभा ३) मूल भाष्यगाथा मिलती है। यह इसी १३५/१७ की व्याख्या रूप है। संभव लगता है कि इसी अपेक्षा से इसे मूल नियुक्तिगाथा माना है। हाटी के संपादक ने भी टिप्पण में ऐसा ही उल्लेख किया है- 'भाष्यकारेण व्याख्यानादस्याः मूलत्वं तन्न पाश्चात्त्यभागकल्पनानिर्युक्तेः'। यह भाष्यगाथा ही अधिक संभव लगती है क्योंकि नियुक्तिकार अन्य द्वारों को छोड़कर केवल एक ही द्वार की व्याख्या नहीं करते। चूर्णि में इसकी संक्षिप्त व्याख्या मिलती है। ६. उत्तरासाढा उ (अ), उत्तराहि साढा य (स, दी)। ७. वयरणाहो (म, रा, ला)। ८. स्वो १६३/१५७२, हरिभद्र एवं मलयगिरि की टीका में यह गाथा 'इयं हि नियुक्तिगाथाप्रभूतार्थप्रतिपादिका' इस उल्लेख के साथ मिलती है। इस गाथा के पश्चात् मटी में द्वारगाथा के रूप में निम्न गाथा व्याख्यात है धण मिहुण सुर महब्बल, ललियंग य वइरजंघ मिहुणे य। सोहम्मविज अच्चुय, चक्की सव्वट्ठ उसभे य॥ यह गाथा भगवान् ऋषभ के पूर्वभव से सम्बन्धित है । चूर्णि में इसका कोई उल्लेख नहीं मिलता। यह गाथा प्रायः सभी हस्तप्रतियों में अन्यकर्तृको उल्लेख के साथ मिलती है। ९. स्वो १६४/१५७३, १३६/१-१२ तक की गाथाएं यद्यपि सभी मुद्रित टीकाओं में निगा के क्रम में व्याख्यात हैं। किन्तु टीकाकारों ने अपनी व्याख्या में कहीं भी नियुक्तिगाथा का संकेत नहीं किया है। चूर्णि में १३६/१-८ तक की गाथाओं के प्रतीक नहीं हैं किन्तु कथारूप में सभी गाथाओं का भावार्थ मिलता है। अन्य नियुक्ति-गाथाओं की शैली देखते हुए ये सभी गाथाएं अतिरिक्त विस्तार सी प्रतीत होती हैं । १३६/१-८ तक की गाथाएं गा. १३५ की पुव्वभव द्वार की व्याख्या रूप हैं तथा गा. १३६/९-१२ तक की चार गाथाओं में तीर्थंकर नाम गोत्र बंध के कारणों का तथा कौन तीर्थंकर कितने स्थानों का स्पर्श करता है, इसका वर्णन है। यह प्रसंग यहां अप्रासंगिक सा लगता है क्योंकि तीर्थंकर नाम गोत्र बंध के कारणों का उल्लेख करने वाली गाथाएं आगे भी मिलती हैं। चूर्णि में इन गाथाओं के प्रतीक एवं व्याख्या मिलती है। ये सभी गाथाएं भाष्यकार या अन्य आचार्य द्वारा बाद में जोड़ी गई हैं, ऐसा अधिक संभव है। आचार्य हरिभद्र ने भी १३६/१ की व्याख्या में इसी बात की पुष्टि की है"अन्या अपि उक्तसंबंधा द्रष्टव्या तावद् यावत् 'पढमेण पच्छिमेण' किन्तु यथावसरमसंमोहनिमित्तमुपन्यासं करिष्यामः।" इसका फलित यही है कि विषय की स्पष्टता की दृष्टि से इनका संग्रहण बाद में किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001927
Book TitleAgam 40 Mool 01 Aavashyak Sutra Part 01
Original Sutra AuthorBhadrabahuswami
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages592
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_aavashyak
File Size11 MB
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