SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८ श्री कवि किशनसिंह विरचित राग द्वेष करि मेलो जदा, तिन दुहु इनतें मिलन न कदा । देह वसंतो रहत सरीर, चेतन शक्ति सदा मुझ तीर ॥४२९॥ चिंता आठौं मद आरम्भ, चितवन मदन कषाय रु दम्भ । इनिकौं जिस बिरियाँ परिहार, करय सुबुधि सामायिक धार ॥४३०॥ सीत उसन वरषा फुनि वात, दंसादिक उपजत उतपात । जिनवर वचन विर्षे अति धीर, सहिहै जिके महा वरवीर ॥४३१॥ पूर्वाचारिजके अनुसार, जे सुविचक्षण करय विचार । तीन मुहूरत दुइ इक जाणि, उत्तम मध्यम जघन वखाणि ॥४३२॥ जैसी शक्ति होय जिहिं पासि, करिए दै भवभ्रमण विनासि । भव्य जीव इहि विधि जे करै, तिनकी महिमा कवि को करै॥४३३॥ दोहा इह व्रत पालै जे सुनर, मन वच क्रम धरि ठीक । सुर नरके सुख भुंज करि, सिव पावै तहकीक ॥४३४॥ जे कुमती जिननामकौ, लैन करै परमाद । सो दुरगति जैहै सही, लहिहै दुक्ख विषाद ॥४३५॥ कर्मोंसे बँधा हुआ हूँ तो भी निश्चयनयसे मुझे कर्मोंका बंधन नहीं है। रागद्वेष भी मुझमें है परन्तु इन दोनोंसे मेरा मेल नहीं है-ये मेरे स्वभाव नहीं हैं। यद्यपि मैं शरीरमें वास कर रहा हूँ तो भी शरीरसे रहित हूँ। एक चैतन्यशक्ति ही मेरे निकट है ॥४२७-४२९॥ मनुष्यके जो आठों प्रकारके मदकी चिंता चल रही है तथा काम, कषाय और कपटका चिंतवन होता रहता है इनका जब त्याग होता है तभी सामायिक होती है। शीत, उष्ण, वर्षा, वायु तथा डांस, मच्छर आदिका जो उत्पात होता है उसे भी जिनेन्द्रदेवके वचनोंमें श्रद्धा रखनेवाला धीर वीर मनुष्य समताभावसे सहता है। पूर्वाचार्योंके कहे अनुसार ज्ञानी जीव सामायिकमें विचार करते हैं। सामायिकका उत्कृष्ट काल तीन मुहूर्त, मध्यम काल दो मुहूर्त और जघन्य काल एक मुहूर्त है सो जिसकी जैसी शक्ति हो वैसा कर संसार भ्रमणका नाश करना चाहिये। ग्रंथकार कहते हैं कि जो भव्यजीव इस विधिसे सामायिक करते हैं उनकी महिमाका वर्णन कौन कवि कर सकता है ? अर्थात् कोई नहीं ॥४३०-४३३॥ जो उत्तम मनुष्य मन, वचन, कायसे इस सामायिक शिक्षाव्रतका पालन करते हैं वे देव और मनुष्य गतिके सुख भोगकर मोक्षको प्राप्त होते हैं। इसके विपरीत जो दुर्बुद्धिजन जिनेन्द्रदेवका नाम लेनेमें प्रमाद करते हैं वे निश्चित ही दुर्गतिमें जाकर दुःख और विषाद प्राप्त करते हैं ॥४३४-४३५।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy