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________________ क्रियाकोष ५७ कुप्य परिग्रहमें ये जाण, चरवा चंदन अतर वखाण । रेसम सूत ऊनका जिता, कपडा होय कहा है तिता ॥३५६।। तिनहूंकी मरज्यादा गहै, यों नायक श्री जिनवर कहै । रुपया भूषण रतन भंडार, २बहुरि सोनयिया अरु दीनार ॥३५७॥ इनकी मरज्यादा करि लेहु, हंडवाई वासन ३फुनि एहु । बहुविधि तणा किराणा भणी, अवर खांड गुड मिश्री तणी ॥३५८॥ मरज्यादा ले सो निर्वहे, भंग कियो दूषणको लहै । मन वच काया पाले जेह, भव भव सुख पावे नर तेह ॥३५९॥ सवैया वरत करैया ग्यारा प्रतिमा धरैया जे जे, दोषके टरैया मनमांहि ऐसे आनिके । जैसो जिह थान जोग तैसो भोग उपभोग, चरन तिजोगमांही कह्यो है वखानिके । आदरे तितो ही तेहि बाकी सबै छांडि देह, ग्रंथ संख्या व्रत एह श्रावकको जानिके । तदभव सुर थाय राजऋद्धिकौं लहाय, पावै सिवथान दुखदानि भव भानिके ॥३६०॥ सूत और ऊनसे निर्मित वस्त्र आते हैं। इन सबकी मर्यादा करनी चाहिये ऐसा श्री जिनेन्द्रदेवने कहा है। रुपया, आभूषण, रत्नभण्डार, सुवर्णनिर्मित वस्तुएँ, दीनार, बर्तनभाण्डे, अनेक प्रकारका किराना, गुड़, खांड़ तथा मिश्री आदिकी जो मर्यादा ली है उसका निर्वाह करना चाहिये। भंग करनेसे अनेक दोष लगते हैं। इन उपर्युक्त वस्तुओंकी सीमाका उल्लंघन करना सो कुप्य प्रमाणातिक्रम नामका अतिचार है। ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि जो मनुष्य मन वचन कायसे मर्यादाका पालन करते हैं वे भवभवमें सुख प्राप्त करते हैं ॥३५६-३५९।। ग्यारह प्रतिमाओंको धारण करनेवाले जो देशव्रती श्रावक हैं वे उपर्युक्त दोषोंका मनमें विचार कर परित्याग करते हैं। चरणानुयोगके ग्रंथोंमें जिस प्रतिमामें भोग-उपभोगका जितना जैसा रखना योग्य बतलाया है उतना ही रखना चाहिये, शेष सबका त्याग कर देना चाहिये। यही श्रावकका परिग्रहपरिमाणव्रत कहलाता है। इस व्रतके धारक जीव देवपद प्राप्तकर वहाँसे च्युत हो राजसम्पदाको प्राप्त होते हैं और दुःखदायक संसारका छेदकर मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥३६०॥ १ चोवा ग० स० न० २ मौहर सुनहरि अरु दीनार स०३ गण स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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