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________________ (७) ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय ग्रन्थकारने मङ्गलाचरणके उपरान्त श्रावककी त्रेपन क्रियाओं-आठ मूलगुण, बारह व्रत, बारह तप, समभाव, ग्यारह प्रतिमाएँ, चार दान, जलगालन, अनस्तमित भोजन, और सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्र-का वर्णन किया है। कविवरने इस ग्रन्थमें इन प्रत्येक क्रियाओंका वर्णन बहुत विस्तारसे किया है जो कि विषयसूचिसे पाठकोंको अनायास ही अवगत हो जायेगा। यह ग्रंथ श्रावककी आचारसंहिता है। श्रावकका जीवन इन क्रियाओंका पालन करनेसे सुव्यवस्थित एवं निर्दोष हो जाता है। __ ग्रंथमें रात्रिभोजनत्यागका वर्णन 'निशिभोजनकथा'के साथ किया गया है जिसे पढ़कर पाठकका हृदय रोमांचित हो उठता है। जिनमंदिर निर्माण, देवस्थापन तथा जिनपूजनका अधिकारी कौन है इसका विशद वर्णन किया गया है। इस प्रकरणमें स्त्रीपूजन एवं स्त्रीप्रक्षालकी चर्चा करते हुए स्पष्ट लिखा है कि स्त्री भगवानका पूजन तो कर सकती है परंतु अभिषेक नहीं। २ ग्यारह प्रतिमाओंका वर्णन भी सविस्तर किया है। श्रावकके करने योग्य विविध व्रतों एवं तपोंका अन्यग्रन्थदुर्लभ वर्णन यहाँ किया गया है। ____ कविवर किशनसिंहजीने अपने ‘क्रियाकोष'को मूल-परम्परासे जोड़नेका प्रयास किया है और वे श्रावकके व्रतों एवं उनके अतिचारोंके वर्णनमें पूर्णतः सफल रहे हैं। परंतु कुछ स्थल ऐसे भी दृष्टिगत होते हैं जहाँ आधारके समझनेमें भ्रांति नजर आती है। यथा-पृष्ठ २०६ पर सूतकपातक संबंधी विवरणका आधार 'मूलाचार' निरूपित किया गया है, परन्तु इसका आधार 'मूलाचार' न होकर 'त्रिवर्णाचार' है।३ पृष्ठ १७५ पर जिनप्रतिमाकी महिमा बताते हुए 'महाधवल'की चर्चा की है। यह ‘महाधवल' उस समय उन्हें उपलब्ध नहीं हुआ था, किन्तु किसी अन्य विद्वानके मुखसे सुनकर 'महाधवल'को आधार बताकर उन्होंने जिनप्रतिमाकी महिमाका वर्णन किया है जो कि 'महाधवल' में नहीं है। आशा है ऐसे स्थलोंका अध्ययन पाठक स्वयं अपनी बुद्धिसे उचित रूपमें करके यथार्थताका निर्णय करेंगे। मिथ्यामतनिषेधके सन्दर्भमें राजस्थानमें प्रचलित अनेक रूढ़ियोंका उल्लेख किया गया है। वे रूढ़ियाँ हमारे प्रान्तमें न होनेके कारण हमें उनका भाव स्पष्ट नहीं हो सका। इसलिये यह प्रकरण लेकर मैं उदयपुर गया था, वहाँ पर पूज्य आर्यिका १०५ विशुद्धमति माताजी तथा उन के दर्शनार्थ आनेवाले स्त्री-पुरुषोंसे उन रूढ़ियोंका भाव समझकर तदनुसार हिन्दी अनुवाद किया है। यदि किसी विषयका भाव स्पष्ट न हुआ हो तो विद्वज्जन उसे स्वयं अवगत कर लें। गुणवय तव सम पडिमा दानं जलगालणं च अणच्छमियं । दसंणणाणचारित्तं किरिया तेवण्ण सावया भणिया ॥१॥ २. देखिये पृष्ठ २३०-२३१ छन्द नं. १४५५-१४६० । ३. देखिये पृष्ठ २०९ का पादटिप्पण। ४. देखिये पृष्ठ १७६ का पादटिप्पण। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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