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क्रियाकोष
घृत हींग लूण बहु नाज, तंदुल गुल खांड समाज इन मांही भेल कराहीं, हियरे अति लोभ धराहीं ॥ ३०८ ॥ कपडो बहुमोलो ल्यावै, कोऊ कह आण ताके बदलें धरि वैसो, अगिलो रंग होवै व्रत दान अदत्ता कीजै, पण अतीचार ए लीजै । ताते सुनिये भवि प्राणी, दुरगति दुःखदायक जाणी ॥ ३९०॥ तजिये इनकौं अब वेग, भवि जीवनिको इह नेग । त्यागै सुधरै इह लोक, पर भव सुख पावे थोक ॥ ३११॥ ब्रह्मचर्य अणुव्रत कथन
चौपाई - नारि पराई को सर्वथा, त्याग करै मन वच क्रम यथा । निजवयतैं लघु देखे ताहि, पुत्री सम सो गिनिये जाहि ॥ ३१२॥ आप बराबर 'जो वय धरै, निज भगिनी सम लख परिहरै । आप थकी व अधिकी होय, ताहि मात सम जाणहि जोय ॥३१३॥
इम परतियको गनिहै भव्य, सो सुख सुरनरके लहि सर्व । निज वनितामांहि संतोष, करिये इस विध सुणी शुभ कोष ॥ ३१४॥
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प्रकारके सुगंधित पदार्थ, घी, हींग, मक्खन, अनेक प्रकारके अनाज, चावल, गुड़ तथा शक्कर आदिमें कोई भेल कराता है तथा हृदयमें अत्यधिक लोभका भाव रखता है यह प्रतिरूपक व्यवहार नामका अतिचार है ॥ ३०५ - ३०८।। कोई बहुमूल्य वाले कपड़े लाता है तथा किसीसे कह कर बुलवाता है तो बदल कर उसी रंगके अल्पमूल्य वाले वस्त्र रख देता है यह भी प्रतिरूपक व्यवहार नामका अतिचार है ॥ ३०९ ॥ जो अदत्तादान व्रत ग्रहण करता है किन्तु उपर्युक्त पाँच अतिचार लगाता है उसे दुर्गतिके दुःख भोगने पड़ते हैं । इसलिये हे भव्यजीवों ! इन्हें श्रवण कर शीघ्र ही इनका त्याग करो जिससे यह लोक सुधरे और परलोकमें सुख प्राप्त हो ।। ३१०-३११।। आगे ब्रह्मचर्याणुव्रतका कथन करते हैं।
गहावै । जैसो ॥ ३०९ ॥
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परस्त्रीका मन वच कायसे सर्वथा त्याग करना चाहिये। अपनी अवस्थासे जो स्त्री छोटी दीखे उसे पुत्रीके समान गिनना चाहिये ॥ ३१२ || जो अपने समान अवस्थाको धारण करनेवाली हो उसे बहिनके समान जान कर छोड़ना चाहिये और जो अपनेसे अधिक अवस्थाकी हो उसे माताके समान जानना चाहिये || ३१३ || इस प्रकार जो परस्त्रीको पुत्री, बहिन और माताके समान मानता है वह भव्य जीव देव और मनुष्यके सब सुखोंको प्राप्त होता है । यह सुन कर निज स्त्रीमें ही संतोष करना चाहिये । यह स्वदार संतोषव्रत शुभकोष अर्थात् कल्याणोंका खजाना
१ जोबन ग०
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