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________________ ४६ श्री कवि किशनसिंह विरचित इनकों त्यागै जो जीव, शुभ गति सुख लहै अतीव । ए अतीचार पण भाखे, व्रत सत्य जेम जिन आखे ॥२९०॥ शिवभूति भयो द्विज एक, पापी धर मन अविवेक । नग पांच सेठ सुत धरिके, पाछे सों गयो मुकरके ॥२९१॥ सत्यघोष प्रगट तसु नाम, नृपतिय झूठा लखि ताम ।। जुवा रमि करे चतुराई, तसु तियतें रत्न मंगाई ॥२९२॥ तिह सेठ परीक्षा कारी, जिह लिये निज नग टारी । द्विज मरिकै पन्नग थायो, तत्क्षण असत्यफल पायो ॥२९३॥ अदत्तत्याग अणुव्रत कथन चौपाई धरो परायो अरु वीसरो, लेखामें भूलो जो करो । मही परो नहि लेहै सोय, जो अदत्त त्यागी नर होय ॥२९४॥ चोरी प्रगट अदत्ता सर्व, अणुव्रतधारी तजिहै भव्य । लगै व्योपारादिकमें दोष, एक देश पलिहै शुभ कोष ॥२९५॥ जो पुरुष इन पाँचों अतिचारोंको जानकर इनका त्याग करते हैं वे शुभगति-देव और मनुष्य गतिके सुखको प्राप्त होते हैं। ये पाँच अतिचार इसलिये कहे हैं कि जिससे सत्यव्रत अखण्ड रूपसे पाला जा सके ॥२८८-२९०॥ ____ आगे न्यासापहारके संदर्भकी कथा कहते हैं-एक शिवभूति नामका ब्राह्मण था जो पापी और मनमें अविवेकको धारण करनेवाला था। उसके पास एक सेठका पुत्र पाँच रत्न रख गया। पीछे वह शिवभूति देनेसे मुकर गया अर्थात् कहने लगा कि हमारे पास रत्न नहीं रख गये हो। शिवभूति ब्राह्मणका नाम सत्यघोष प्रसिद्ध था। सब लोग उसे सत्यवादी समझते थे परन्तु रानीने सत्यघोषका झूठ पकड़ लिया। उसने सत्यघोषके साथ जुआ खेलना शुरू किया और उसके जनेऊ तथा चाकू आदि जीत कर चतुराईसे उसकी स्त्रीके पास भेजे तथा उस प्रमाणसे सेठके रत्न मँगा लिये। सेठकी भी उसने परीक्षा की। उन रत्नोंको उसने दूसरे रत्नोंमें मिला कर सेठसे कहा कि इनमें जो रत्न तुम्हारे हों उन्हें ले लो। सेठने छाँट कर अपने रत्न उठा लिये। इस असत्यके अपराधसे सत्यघोषको इस भवमें दण्डित किया गया और वह मरकर अगले भवमें साँप हुआ ॥२९१-२९३॥ आगे अदत्तत्याग-अचौर्याणुव्रतका वर्णन करते हैं जो दूसरोंके रखे हुए, भूले हुए, हिसाबमें भूले हुए तथा पृथिवी पर पड़े हुए धनको नहीं लेता है वह अदत्तत्याग व्रतका धारक होता है ॥२९४॥ लोकमें जो प्रकट रूपसे चोरी मानी जाती हैं, अणुव्रतका धारी भव्यजीव उन सबका त्याग करता है। यतश्च उसके व्यापारादिकमें १ उन लीनो स० २ द्विज लहि संकट अहि थायो स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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