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श्री कवि किशनसिंह विरचित
कोइ मिथ्याती कहि है एम, जिय उतपत्ति भाषिये केम ? जीव तेल घृतमें कहुं नांहि, चरम धरें कर उपजें कांहि ? ॥ १५२॥ ताके समझावणको कथा, कही जिनेश्वर भाषं यथा । दे दृष्टांत सुदृढता धरी, मिथ्यादृष्टी संशय हरी ॥ १५३॥ घृत जल तेल जोगतें जीव, चरम वस्तुमें धरत अतीव । उपजै जैसे जाको चाम, सो दृष्टांत कहूं अभिराम ॥ १५४॥
सूरज सन्मुख दरपण धरै, रुई ताके आगे करै । रवि दरपणको तेज मिलाय, अगनि उपजि रुई बलि जाय ॥ १५५॥ नहीं अगनि इकले रविमांही, 'दरपण मध्य कहूं है नांही । दुहुयनिको संयोग मिलाय, उपजै अगनि न संशै थाय ॥ १५६ ॥ तेम २चामके वासनमांहि, घृत जल तेल धरैं शक नांहि । उपजै जीव मिलें दुहुं थकी, इह कथनी जिनमारग बकी ॥ १५७॥ ऐसैं लखकैं भील चमार, धीवर रेंगर आदि चंडार । तिनके घरके भाजनतणों, भोजन भखें दोष तिम भणो || १५८॥
इस संदर्भमें कोई मिथ्यात्वी जीव ऐसा कहते हैं कि जब तेल और घृतमें कहीं जीव नहीं दीखते तब चमड़े में रखने मात्रसे किस प्रकार उत्पन्न हो जाते हैं ? उन्हें समझानेके लिये जिनेन्द्र देवने जैसा कहा है वैसा दृष्टान्त देकर कहता हूँ जिससे संशयमें पड़े हुए मिध्यादृष्टि श्रद्धानकी दृढ़ताको धारण कर सकें ।।१५२ - १५३ ॥ चमड़ेकी वस्तुमें रखते ही घी, जल और तेलके संयोगसे जिस पशुका चमड़ा है उसी जातिके असंख्यात जीव उत्पन्न हो जाते हैं । इसका सुन्दर दृष्टान्त यह है - जैसे सूर्यके सन्मुख दर्पण रक्खो और उसके आगे रूई रक्खो तो सूर्य और दर्पणका तेज मिलने से अग्नि उत्पन्न हो कर रूईको जला देती है । यद्यपि अकेली रूईमें अग्नि नहीं है और अकेले दर्पणमें भी कहीं अग्नि नहीं दिखाई देती तो भी दोनोंका संयोग मिलने पर अनि उत्पन्न हो जाती है इसमें संशय नहीं है ।। १५४ - १५६ ।। इसी प्रकार चमड़ेके बर्तनमें घी, जल और तेलके रखते ही दोनोंके संयोगसे जीवोंकी उत्पत्ति हो जाती है, यह कथन जिनमार्गमें कहा गया है ।।१५७।। भील, चमार, धीवर, रेंगर तथा चंडाल आदिके घरके बर्तनोंका जो भोजन करते हैं उन्हें भी इसी प्रकारका दोष लगता है अर्थात् चमड़े में रखी वस्तुके खानेका जैसा दोष है वैसा ही दोष नीच घरोंके बर्तनोंमें रखी हुई वस्तुके खानेका दोष है । यह दोष दुर्गतिको देनेवाला तथा दुःखोंका भण्डार है। अधिक क्या कहे ? जो चमड़ेमें रखी वस्तुका भक्षण करते
१ दर्पणमें
दीसे नाहि स० २ चरमके स०
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