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क्रियाकोष
चर्माश्रित वस्तु दोष वर्णन
दोहा
चरम मध्यकी वस्तुको, खात दोष जो होय । ताको संक्षेपहि कथन, कहूं सुनो भवि लोय ॥१४६॥ चौपाई
मूये पशुको चरम जु होय, भींटे नर चंडाल जु कोय । ता चंडालहि परसत जबै, छोति गिने सगरे नर तबै ॥ १४७॥
घर आये जल स्नान करेय, एती संख्या चित्त धरेय । पशू खालके कूपा मांहि, घिरत तेल भंड शाल करांहि ||१४८|| अथवा सिर पर धर कर ल्याय, बेचै सो बाजारहिं जाय । ताहि खरीद लेय घरमांहि, रेखावे सबै शंक कछु नाहि ॥ १४९॥ तामें उपजें जीव अपार, जिनवाणी भाष्यो निरधार | " जैसे पशू चामके मांहि, घृत जल तेल डार है नांहि || १५०|| ताही कुलके "जीव उपजंत, संख्यातीत कहे भगवंत । ऐसौ दोष जाणिकै संत, चरम वस्तु तुम तजहु तुरंत ॥१५१॥
गई है उसे दृष्टिमें रखना चाहिये ।। १४४ - १४५ ।। इस प्रकार गोरसकी मर्यादाका वर्णन पूर्ण हुआ || अब आगे चर्ममें रखी हुई वस्तुओंके दोषका वर्णन करते हैं
चमड़े के भीतर रखी हुई वस्तुओंके खानेमें जो दोष लगता है, उसका संक्षेपसे कथन करता हूँ । हे भव्यजनों ! उसे सुनो ॥१४६॥
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मृत पशुका जो चमड़ा होता है उसे चाण्डाल- चमार आदि नीच लोग ही तैयार करते हैं । उन चाण्डालोंके स्पर्शसे ही जब सब लोग छूत गिनते हैं तथा मनमें इतनी ग्लानि रखते हैं कि घर आकर जलसे स्नान करते हैं तब चमड़ेकी क्या बात कही जाय ? ।।१४७|| कितने ही लोग पशुओंकी खालसे निर्मित कुप्पाकुप्पियोंमें घी और तेल भर कर रखते हैं और कितने ही उन्हें शिर पर रख कर बाजारमें बेचने जाते हैं । उसे खरीद कर लोग घर लाते हैं और निःशंक होकर खाते हैं परन्तु उसमें अपार जीव उत्पन्न होते हैं ऐसा जिनवाणीमें कहा है । पशुचर्मसे निर्मित बर्तनोंमें घृत, तेल और जल डाल नहीं पाते कि उसमें उसी समय उसी जातिके असंख्यात जीव उत्पन्न हो जाते हैं ऐसा श्री जिनेन्द्र भगवानने कहा है । ग्रन्थकार कहते हैं कि हे सत्पुरुषों ! ऐसा दोष जान कर चर्माश्रित वस्तुओंका शीघ्र ही त्याग करो ।। १४८-१५१।।
१ ग्लानी स० २ वासन स० ३ खैहे स० न० ४ जैसे पशु चमडाके मांही, घृत, जल तेल डारि सक नाही क० जैसे पसूचामके मांहि, घृत जल तेल डारित संकै नांहि ग० ५ जिय स०
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