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________________ क्रियाकोष १७ खरबूजा काकडी तोरई, टीडसी पेठो पलवल लई । सेम करेला खीरा तणा, बीजा विधि फल कीजे घणा ॥१०४॥ तिनकी दाल थकी मिलवाय, दही छाछि सों विदल कहाय । मुखमें देत लाल मिलि जाय, उतरत गलै पंचेन्द्री थाय ॥१०५॥ नाज बेलि तें उपजै जोय, सो अकाष्ठ गनियो भवि लोय । छाछ तणो फल बीजह जान, तिनकी दाल होय सो मान ॥१०६॥ छाछ दही मिल विदल हवन्त, यों निहचै भाष्यो भगवंत । चारोली 'पिसता बादाम, बोल्या बीज सांगरी नाम ॥१०७॥ इत्यादिक तरु फलके मांहि, बीज दुफारा मीजी थाहि । छाछ दही सों भेलि रु खाय, विदल दोष तामें उपजाय ॥१०८॥ गलै उतरता मिलि है लाल, पंचेन्द्री उपजै तत्काल । ऐसो दोष जान भवि जीव, तजिए भोजन विदल सदीव ॥१०९॥ सांगर पिठोर तोरई तणा, मूरख करै राइता घणा । तिहका अघको पार न कोय, जो खाहै सो पापी होय ॥११०॥ है, वह अनाज संबंधी दाल है। इनके सिवाय बेलमें नाल सहित जिनकी उत्पत्ति होती है ऐसे खरबूजा, ककड़ी, तोरई, टिण्डा, पेठा (कुम्हड़ा), पलवल, सेम, करेला और खीरा (विशेष प्रकारकी ककड़ी) के बीजोंकी जो दाल है उसे दही और छाछमें मिलानेसे द्विदल कहलाता है। द्विदलको मुखमें देने पर लारका संबंध होनेसे संमूर्छन पंचेन्द्रिय जीवोंकी उत्पत्ति हो जाती है और वे सब गलेके नीचे उतर कर उदरमें पहुंचते हैं। इस प्रकार अनाज और बेल (लता) से उत्पन्न होनेवाला द्विदल, अकाष्ठ द्विदल कहलाता है। द्वितीय काष्ठ द्विदलकी विधि यह है-जिन फलोंके बीजोंकी दाल होती है उसे छांछ और दहीके साथ मिलानेसे द्विदल होता है ऐसा यथार्थ रूपसे भगवानने कहा है। इस काष्ठ द्विदलमें अचारकी चिरोंजी, पिस्ता, बादाम, बोल्या (?) के बीज तथा सांगरी आदिके नाम आते हैं। इनको आदि लेकर वृक्षफलोंकी जो मींगी दो फाटवाली होती है उसे छांछ और दहीके साथ मिलाकर खानेसे द्विदलका दोष होता है। मुखके भीतर लारके मिलनेसे उनमें तत्काल पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न हो जाते हैं। इस प्रकारका दोष जान कर हे भव्यजीवों! भोजन संबंधी द्विदलका सदा त्याग करो ॥१०१-१०९।। कितने ही अज्ञानी जन सांगर, पिठौर (पिठौरी?) और तोरईका रायता बनाते हैं, उसके पापका कोई पार नहीं है। जो उस रायतेको खाते हैं वे पापके भागी होते हैं ॥११०॥ ऊपर कहे हुए अकाष्ठ और काष्ठ-दोनों प्रकारके द्विदलोंका जो त्याग करता है वही वास्तवमें श्रावक है। १ पिसता रु बिदाम ग० न० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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