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श्री कवि किशनसिंह विरचित
* खिचडी खाटो भोजन सर्व, पकवानादिक सगरे दर्व । निज सवाद तजि ह्वै विपरीत, इह चलत रस जानों रीत ॥ ९७॥ जाके खाएं दोष अपार, बुधजन तजै न लावै वार । ए बावीस अभक्ष जिनदेव, भाषै सो भविजन सुनि येव ॥९८॥ इनहि त्याग कर मन वच काय, ज्यों सुरशिवसुख निहचै थाय । फूल्यो धान अवर सब फूल, त्रस जीवनको जानौ मूल ॥ ९९ ॥ साकपत्र सब निन्द्य बखान, कुंथादिक करि भरिया जान । मांस त्यजनव्रत राखो चहैं, तो इन सबको कबहुं न गहैं ॥ १०० ॥ विदल वर्णन
भोजन विदलती विधि सुनो, जिनवर भाषी निहचै मुनो । दोय प्रकार विदलकी रीति, सो भविजन आनो धर प्रीति ॥ १०१ ॥ प्रथम अकाष्ठतणी विधि एह, श्रावक होय तजै धर नेह । सुनहु अकाष्ठतणी विधि जान, मूंग मटर अरहर अरु धान ॥ १०२ ॥ मोठ मसूर उडद अरु चणा, चौला कुलथ आदि गिन घणा । इतने नाज तणी है दाल, उपजै बेलि थकी सानाल ॥ १०३ ॥ पालमें दिये जाते हैं वे, तथा खिचड़ी, खटाई आदि सब प्रकारके भोजन अथवा पक्वान्न आदि सब पदार्थ जब अपना स्वाद छोड़ देते हैं तब उन्हें चलित रस जानना चाहिये । इन चलित रस पदार्थोंके खानेमें अपार दोष लगता है इसलिये ज्ञानीजन उनका त्याग करनेमें देर नहीं करते हैं । इस प्रकार जिनेन्द्रदेवने ये बाईस अभक्ष्य कहे हैं । हे भव्यजनों ! इन्हें अच्छी तरह सुनो। जो भव्यजन इनका त्याग करते हैं वे निश्चयसे स्वर्ग और मोक्षके सुख प्राप्त करते हैं । इनके सिवाय फूली हुई धान्य तथा सब प्रकारके फूलोंको त्रस जीवोंका मूल कारण जानो ।।९५ - ९९ ।। पत्तेवाली सब शाक भी निन्दनीय है क्योंकि वह कुन्थु आदिक जीवोंसे भरी होती है । यदि कोई मांसत्याग व्रतकी रक्षा करना चाहता है तो उसे इन सभी अभक्ष्योंको कभी ग्रहण नहीं करना चाहिये ॥१००॥
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द्विदल वर्णन
अब आगे भोजन सम्बन्धी द्विदलका वर्णन सुनो। जिनेन्द्र भगवानने जैसा कहा है वैसा निश्चय कर श्रद्धान करो । द्विदलकी रीति दो प्रकारकी है सो हे भव्यजनों ! उसे प्रीतिपूर्वक धारण करो ॥ १०१ ॥ दो में से पहले अकाष्ठ - अन्न संबंधी द्विदलकी विधि यह है - प्रत्येक मनुष्यको श्रावक होकर इस प्रकारके द्विदलका त्याग करना चाहिये। मूंग, मटर, अरहर, धान, मोठ, मसूर, उड़द, चना, चौला और कुलथी आदि अनाज कहलाते हैं इनमें जिनकी दाल होती
* यह चौपाई व प्रतिमें नहीं है।
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