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श्री कवि किशनसिंह विरचित छह सौ दिवस सतानवै जाण, वरत दिवस मरयाद बखाण । वास इकन्तर दुइसे जाण, तिन ऊपर बावन परवान ॥१८०२॥ त्रेसठ छठ तेलो इक जान, अब सब वास जोड इम मान । वास इक्यासी पर सय तीन, असन तीनसै सोल गनीन ॥१८०३॥ इह व्रत तीन भुवनमें सार, विधिजुत किये देवपद धार । अनुक्रम शिव जैहै तहकीक, अवधारहु भवि चित धरि ठीक ॥१८०४॥
निर्जरापंचमी व्रत
सवैया इकतीसा प्रथम असाढ सेत पंचमीको वास करे,
कातिकलों मास पांच प्रोषध गहीजिये, आठ परकार जिनराज पूजा भावसेती, __उद्यापन विधि करि सुकृत लहीजिये, कीयो नागश्रिय सेठसुता एक वरषलों,
सुरगति पाय विधि कथातें पईजिये, निर्जर पंचमी व्रत इह सुखकार भाव,
शुद्ध कीए दुःखनिकों जलांजलि दीजिये ॥१८०५॥
इस व्रतके सब दिनोंका योग छह सौ सत्तानवे (६९७) होता है अर्थात् यह व्रत इतने दिनोंमें पूर्ण होता है। इसमें २५२ उपवास, २५२ एकान्तर (एकाशन), ६३ छठ, और एक तेला होता है। सब मिलाकर उपवास तीनसौ इक्यासी, और आहार तीन सौ सोलह जानना चाहिये ॥१७९७-१८०३॥
ग्रन्थकार कहते हैं कि यह व्रत तीन लोकमें श्रेष्ठ है। इसे विधिपूर्वक करनेसे देवपद प्राप्त होता है और अनुक्रमसे मोक्षपदकी प्राप्ति होती है। ऐसा हे भव्यजीवों! हृदयमें निश्चय करो ॥१८०४॥
निर्जरा पंचमी व्रत सर्व प्रथम आषाढ़ सुदी पंचमीका उपवास करे, पश्चात् कार्तिक सुदी तक प्रत्येक मासकी सुदी पंचमीका उपवास कर पाँच उपवास करे। उपवासके दिन अष्ट द्रव्यसे जिनराजकी भावपूर्वक पूजा करे, पश्चात् उद्यापन करे । यह व्रत सेठकी पुत्री नागश्रीने एक वर्ष तक किया था तथा उसके फलस्वरूप देवगतिको प्राप्त किया था। इस व्रतको निर्जरा पंचमी व्रत कहते हैं। शुद्धभावसे करने पर यह व्रत सुख उत्पन्न करता है तथा दुःखोंको दूर करता है ॥१८०५।।
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