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क्रियाकोष
वदि चौथि अष्टमी भावनि, पुनि चौदसि सित तृतिया भनि । बारसि तेरसको बेलो, पूनौको वास अकेलो ॥ १७८४॥ भादो वदि दोयज वास, छठि सातै बेलो तास । बारसि उपवास धरीजै, सित पाखजु एम करीजै ॥ १७८५ ॥ तेलो पांचै छठि सातै, पोषो नौमी करि यातें । ग्यारस बारस तेरसको, तेलो प्रोषध पंदरसको ॥ १७८६॥ उपवास आठ चालीस, तेला चहुँ करे गरीस । बेला छह जिनवर भाखे, जिन आगममें इह आखे ॥। १७८७।। ए वरष एकमें वास, सत्तरि दुय आगम भास । धारणे पारणे सन्त, करिये एकन्त महन्त || १७८८॥ धरि शील त्रिविधि नर-नारी, व्रत करहु न ढील लगारी । सुर है अनुक्रम शिव जाई, विधि पल्य तणी इह गाई || १७८९ ॥
रुक्मिणी व्रत
सवैया इकतीसा
लक्षमीमतीका भव मांहि व्रत कीनो इह, श्वेत भाद्रपद आठै प्रोषध आदाय कै; दोय जाम धरणे रु चार उपवास दिन, पूजा रचै दोय याम पारणो बनायकै;
तेला करे और नवमीका उपवास करे तथा ग्यारस, बारस और तेरसका तेला एवं पूनमका उपवास करे ।।१७८३-१७८६ ॥
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इस प्रकार इस व्रतमें अड़तालीस उपवास, चार तेला और छह बेला जिनेन्द्र भगवानने कहे हैं । एक वर्षमें बहत्तर उपवास आगममें कहे गये हैं । उपवास के धारणा और पारणाके दिन एकाशन करना चाहिये । जो स्त्री पुरुष मन वचन कायकी शुद्धिके साथ शीलका पालन करते हुए इस व्रतको धारण करते हैं वे देव होकर क्रमसे मोक्षको प्राप्त होते हैं । इस तरह पल्य विधान व्रतकी विधिका कथन हुआ ।। १७८७-१७८९ ।।
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रुक्मिणी व्रत
रुक्मिणी (कृष्णकी पट्टरानी) ने लक्ष्मीमतीके भवमें यह व्रत किया था। इसकी विधि इस प्रकार है :- भाद्रपद शुक्ल अष्टमीके दिन प्रोषध रखकर यह व्रत शुरू होता है । बीचमें पारणा करते हुए चार उपवास होते हैं, अर्थात् अष्टमी, दशमी, द्वादशी और चतुर्दशीका उपवास और
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