________________
क्रियाकोष
२७५
१सूक्षम छट्ठो अवगाहन सही, अगुरुलघु सप्तम गुण गही । अव्याबाध आठमो धरै, इन आठौकी आठै करै ॥१७२०॥
आचार्यके छत्तीस गुण
- चौपाई
आचारिज गुण जेह छत्तीस, तिनकी विधि सुनिये निसि दीस । बारसि बारा तप दश दोय, षडावश्यकी छठि छह होय ॥१७२१॥ पांचै पांच पांच आचार, दश लक्षणकी दशमी धार । तीन तीज तिहुँ गुप्त जो तणी, प्रोषध ए छह तीस जो भणी ॥१७२२॥
उपाध्यायके पच्चीस गुण
चौपाई गुण पचीस उवझाया जान, चौदह पूरव कहे बखान । ग्यारा अंग प्रकाशै धीर, ए पचीस गुण लखिये वीर ॥१७२३॥ चौदा चौदसके उपवास, ग्यारां ग्यारसि प्रोषध तास । उपाध्यायके गुण हैं जिते, वास पचीस वखाणे तिते ॥१७२४॥
साधुके अट्ठाईस गुण
चौपाई साधु अठाईस गुण जानिये, २तिनि प्रोषध इनि विधि ठाणिये ।
पंच महाव्रत समिति जु पंच, इन्द्री विजय पंच गणि संच ॥१७२५॥ सम्यक्त्व, दूसरा ज्ञान, तीसरा दर्शन, चौथा वीर्य, पाँचवाँ सूक्ष्मत्व, छठवाँ अवगाहनत्व, सातवाँ अगुरुलघुत्व और आठवाँ अव्याबाधत्व-इन आठ गुणोंको लक्ष्य कर आठ अष्टमीके प्रोषध करने चाहिये ॥१७१९-१७२०॥
अब आचार्यके जो छत्तीस गुण हैं उनकी विधि सुनो। बारह तपोंकी बारह द्वादशी, षडावश्यकोंकी छह षष्ठी, पाँच आचारोंकी पाँच पंचमी, दशलक्षण धर्मोंकी दश दशमी और तीन गुप्तियोंकी तीन तृतीया, इस प्रकार छत्तीस प्रोषध कहे गये हैं ॥१७२१-१७२२॥
उपाध्यायके चौदह पूर्व और ग्यारह अंगके भेदसे पच्चीस गुण होते हैं। उन्हें लक्ष्य कर चौदह पूर्वोकी अपेक्षा चौदह चतुर्दशी और ग्यारह अंगोंकी अपेक्षा ग्यारह एकादशी, इस प्रकार पच्चीस प्रोषध करने पड़ते हैं। उपाध्यायके जितने गुण हैं उतने ही प्रोषध कहे गये हैं ॥१७२३१७२४॥
साधु परमेष्ठीके अट्ठाईस गुण होते हैं। उनके प्रोषधकी विधि इस प्रकार जाननी चाहिये। पाँच महाव्रत, पाँच समिति और पाँच इन्द्रिय विजय, इनकी पन्द्रह पंचमी, छह आवश्यकोंकी छह
१ सोहम स० सुहुम न० २ तिनके प्रोषध अठाइस मानिये स० न०
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org |