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________________ २७४ श्री कवि किशनसिंह विरचित पंच परमेष्ठीका गुण व्रत उक्तं च गाथा अरहंता छैयाला सिद्धा अद्वैव सूरि छत्तीसा । उवझाया पणवीसा साहूणं हुंति अडवीसा ॥१७१५॥ दोहा कहूँ पंच परमेष्ठिके, जे जे गुण सु गरीस । छियालीस वसु तीस-छह, अरु पचीस अडवीस ॥१७१६॥ अरहंतके छियालीस गुण वर्णन चौपाई कहूं छियालिस गुण अरहंत, दस अतिशय जनमत है संत । केवलज्ञान भये दस थाय, दुहुकी बीस दसे करवाय ॥१७१७॥ प्रातिहार्यकी आठे आठ, चौथि चतुष्टय चहुं ए पाठ । सुरकृत अतिशय चवदह जास, चौदह चौदसि गनिये तास ॥१७१८॥* सिद्धके आठ गुण वर्णन चौपाई अब सुनिये वसु सिद्धन भेद, करिये वास आठ सुणि तेह । समकित दूजो णाण बखाण, दंसण चौथो वीरज जाण ॥१७१९॥ कर एक सौ बीस हुए। यह व्रत दश वर्ष और साढे तीन माहमें पूर्ण होता है, सब मिलाकर बारह सौ चौंतीस प्रोषध होते हैं । सम्यक्चारित्रकी भावना चित्तमें रखना चाहिये ऐसा मुनिजन कहते हैं। व (स्व.पं.बारेलालजी टीकमगढ कृत 'जैन व्रत विधि संग्रह' पुस्तकसे संकलित) पंच परमेष्ठी व्रत अरहन्तके छियालीस, सिद्धके आठ, आचार्यके छत्तीस, उपाध्यायके पच्चीस, और साधुके अट्ठाईस मूल गुण हैं, ऐसा गाथामें कहा गया है। इसीका अनुवाद दोहा छन्दमें है। अरहन्त आदि परमेष्ठियोंके छियालीस, आठ, छत्तीस, पच्चीस और अट्ठाईस मूल गुण होते हैं ॥१७१५१७१६॥ ___अब अरहन्तके छियालीस गुणोंका कथन करता हूँ-जन्मके दश अतिशय और केवलज्ञानके दश अतिशय, दोनोंके मिलाकर बीस दशमीके प्रोषध करना चाहिये । प्रातिहार्यकी आठ अष्टमी, चतुष्टयकी चार चतुर्थी, और देवकृत चौदह अतिशयोंकी चौदह चतुर्दशी, इस प्रकार सब मिलाकर छियालीस प्रोषध करनेसे अरहन्त गुण व्रत पूर्ण होता है ॥१७१७-१७१८॥ अब सिद्धोंके आठ गुणोंका वर्णन सुनो । उसे सुनकर आठ उपवास करना चाहिये। पहला * छन्द १७१८ के आगे न० और स० प्रतिमें यह छंद अधिक है सकल वास गन छहि चालीस, गुन अरहंत तनै नमि सीस । सील सहित प्रोषध कर सार, निहचै सुरपदके दातार ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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