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________________ २६८ श्री कवि किशनसिंह विरचित चौपाई प्रथमहि चार इकंतर वास, करहु पछै बेलो इक तास । ता पीछे जु एकंतर करै, द्वादश प्रोषध विधि जुत धरै ॥१६९१॥ पनि बेलो करिये हित जानि, बारा वास इकंतर ठानि ।। पाछै इक बेलो कीजिये, इक अंतर दश दुय लीजिये ॥१६९२॥ फिरि इक बेलो करि धरि प्रेम, वसु उपवास इकंतर एम । सब उपवास आठ चालीस, बिचि बेलो चहुँ कहे गणीस ॥१६९३॥ दधिमुख रतिकरके उपवास, अंजनगिरि चहुँ बेला तास । दिवस एक सो आठ मझार, वरत यहै पूरणता धार ॥१६९४॥ छप्पन प्रोषध भवि मन आन, करे पारणा बावन जान । लगते करे ना अंतर परै, अघ अनेक भव-संचित हरै ॥१६९५॥ सबसे पहले एक दिनके अन्तरसे चार उपवास करे, पश्चात् एक बेला करे, उसके पश्चात् एकान्तरसे विधिसहित बारह उपवास करे, पश्चात् एक बेला करे, फिर एकान्तरसे बारह उपवास करे, पश्चात् एक बेला करे, फिर एकान्तरसे बारह उपवास करे, पश्चात् एक बेला करे, फिर एकान्तरसे आठ उपवास करे। इस व्रतमें सब मिलाकर ४८ उपवास और ४ बेला आते हैं ऐसा गणधरदेवने कहा है। १६ दधिमुख और ३२ रतिकरोंके अडतालीस उपवास और चार अंजनगिरिके ४ बेला कहे गये हैं। एक सौ आठ दिनमें यह व्रत पूर्ण होता है। भव्यजीव अपने मनमें निश्चय करे कि इस व्रतमें ५६ प्रोषध और ५२ पारणाएँ होती हैं। व्रत प्रारंभ करनेके बाद बीचमें खण्डित न हो, इसका ध्यान रक्खें। यह व्रत अनेक भवके संचित पापोंको नष्ट करता है ॥१६९१-१६९५॥ भावार्थ : इस व्रतका हरिवंश पुराणमें इस प्रकार वर्णन है-नंदीश्वर द्वीपकी एक एक दिशामें चार चार दधिमुख हैं, इसलिये प्रत्येक दधिमुखको लक्ष्य कर मनकी मलिनताको दूर करते हुए चार उपवास करने चाहिये। एक एक दिशामें आठ आठ रतिकर हैं इसलिये प्रत्येक रतिकरको लक्ष्य कर आठ उपवास करने चाहिये। एक एक दिशामें एक एक अंजनगिरि है इसलिये उसे लक्ष्य कर एक एक बेला करना चाहिये। इस प्रकार एक दिशाके बारह उपवास, एक बेला और तेरह पारणाएँ होती हैं। यह व्रत पूर्व दिशासे प्रारंभ कर दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशाके क्रमसे चारों दिशाओंमें करना चाहिये । इसमें अडतालीस उपवास, चार बेला और बावन पारणाएँ आती हैं। इस तरह यह व्रत एक सौ आठ दिनमें पूर्ण होता है। यह नन्दीश्वर व्रत अत्यन्त श्रेष्ठ और जिनेन्द्र तथा चक्रवर्ती पदको प्राप्त करानेवाला है। (भारतीय ज्ञानपीठ संस्करण द्वितीयावृत्ति पृष्ठ ४३३-४३४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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