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क्रियाकोष आठेके प्रोषध आठ, नवमी नव आगम पाठ । दसमी दस ग्यारस ग्यारे, बारसिके प्रोषध बारै॥१६५९॥ तेरसि तेरा गनि लीजै, चौदसिके चौदह कीजै । पंदरसि पंदरह शिवकारी, बीस रु सौ प्रोषध धारी ॥१६६०॥ इह सुख संपत्ति व्रत नीको, भव भव सुखदायक जीको । मन वच काया शुद्ध कीजै, भविजन नर भवफल लीजै ॥१६६१॥
द्वादश व्रत
चौपाई बारा वरत तणी विधि जिसी, बारा भांति वखाणौ तिसी । प्रोषध बारा कीजे सन्त, अरु बारा ही करिये एकन्त ॥१६६२॥ बारा कांजी तंदुल लेय, नीगोरस गोरस तजि देय । अलप अहार असन इक भाग, लैहे करिहै दुय पय भाग ॥१६६३॥ इकठाणौ भोजन जल सबै, ले पुरसाय बार इक तबै । मूंग मोठ चौला अरु चिणा, लेहि इकौण बीणि तत खिणा ॥१६६४॥ पाणी लूण थकी जो खाय, 'नयड नाम ताको कहवाय । घिरत छांडिये सब परकार, सो जाणो लूखौ जु अहार ॥१६६५॥ त्रिविधि पात्र साधरमी जाण, ताहि आहार देय विधि जाण ।
ले मुख सोधि निरन्तर थाय, पाछै व्रत धर असन लहाय ॥१६६६॥ तेरह, चौदशके चौदह और पन्द्रसके पन्द्रह, इस प्रकार एक सौ बीस प्रोषध करना बड़ा सुखसंपत्ति व्रत है। यह सुखसंपत्ति व्रत, व्रत करनेवाले जीवोंको भव भवमें सुखदायक है। हे भव्यजीवों ! मनवचनकायको शुद्ध कर इस व्रतके द्वारा मनुष्यभवका फल प्राप्त करो ॥१६५८-१६६१॥
द्वादश व्रत अब द्वादश व्रतकी विधि बारह प्रकारकी जैसी कही गई है वैसी कहता हूँ। इस व्रतमें बारह प्रोषध और बारह एकाशन होते हैं। बारह एकाशन इस प्रकार करे-१ कांजीके साथ चावल लेवे। २ घी, दूध, दहीरूप गोरसका त्याग कर निर्गोरस एकाशन करे। ३ अल्पाहार करे अर्थात् भोजन एक भाग और पानी दो भाग ले । ४ एकठाना अर्थात् एक बार परोसे हुए अन्न जलको ग्रहण करे। ५ एकान्न अर्थात् मूंग मौठ चौला चना आदिमेंसे किसी एक अन्नको लेवे। ६ नयड़ अर्थात् नमक और पानीके साथ एकाशन करे। ७ रूक्षाहार अर्थात् सब प्रकारसे घृतका परित्याग कर आहार लेवे। ८ मुखशोधी-अर्थात् तीन प्रकारके पात्रोंको विधिपूर्वक
१ नजय स०
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