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________________ २१४ श्री कवि किशनसिंह विरचित अडिल्ल छंद पंच अंक इन ऊपर चौदह सुन हिये, अंक भये उगणीस सकल भेले किये; छासठ सहस रु नव सय पचहत्तर भणे, कोडा कोडी इतने तारा गण गणे ॥१३५४॥ चौपाई एक चंद्रमाको परिवार, तैसो दूजाको विस्तार | मेरु तणी परिदक्षणा देई, थिरता एक निमिष नहि लेई ॥१३५५॥ जिन आगममें इह तहकीक, आनमती के सो नहि ठीक | जिनमत जोतिष विच्छिति भई, अट्ठासी ग्रह भेद न लई ॥१३५६॥ दोहा प्रगट्यो शिवमत जोर जब, पंडित निज बुधि धार । ग्रन्थ कियो जोतिष तणो, तसु फेल्यो विस्तार ||१३५७|| आदित सोमरुभूमि सुत, बुध गुरु शुक्र सुजान । राहु केतु शनि सकल, नव ग्रह कहे बखान ॥१३५८||* चौथो अष्टम बारमों, अरु घातीक बताय । साडे साती शनि कहै, दान देहु सम थाय ॥१३५९ ॥ है । इतनी एक चन्द्रमा संबंधी ताराओंकी संख्या है ।।१३५२-१३५४ ।। एक चंद्रमा संबंधी जितना परिवार है उतना ही दूसरे चंद्रमा संबंधी परिवार है । ये सब ज्योतिषी देव मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा देते रहते हैं, एक निमेषके लिये भी इनमें स्थिरता नहीं होती है ।। १३५५ ।। 1 जिनागममें यह सब वर्णन किया गया है, अन्यमतियोंका वर्णन कुछ ठीक नहीं है । जिनमतके ज्योतिषकी विच्छित्तिप्रचार संबंधी ह्रास हो गया है इसलिये लोग अठासी ग्रहोंका रहस्य नहीं समझ पाते || १३५६ ॥ Jain Education International जब शिवमतका प्रभाव प्रकट हुआ तब उनके विद्वानोंने अपनी बुद्धिके अनुसार ज्योतिषके ग्रन्थ रचे और उनका ही विस्तार हुआ || १३५७ | उनमें सूर्य, चन्द्रमा, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, राहु, केतु और शनि ये नौ ग्रह कहे गये || १३५८॥ चौथे, अष्टम, और बारहवें को घातिक बतलाया गया और साढ़े साती शनिका कथन कर दान देनेकी बात कही गई || १३५९॥ १ मारगमें स० * स० और न० प्रतिमें छन्द १३५८ के आगे निम्न छन्द अधिक हैतिनि माफिक तिथि पक्ष दिन, नव ग्रह बारह रास । ऊपर फिरते शुभ अशुभ, दीन हीन परकास ।। For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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