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________________ २१२ श्री कवि किशनसिंह विरचित मरहठा छन्द इह जगमांही अति विचराही क्रिया मिथ्यात जु केरी, अदयाको कारण शुभगति वारण भव भटकावन फेरी; करि है अविवेकी है अति टेकी तजिकै नेकी सार, धरम न चित्त आनै, अघ ही जानै, कौन वखानै पार ॥१३४५॥ तामै रमि रहिया ग्रह ग्रह गहिया तिय वच सहिया तेह, मनमें डर आने कहै सु ठानै वचन वखानै जेह; नरपद जिन पायो वृथा गमायो पाप उपायो भूरि, अशुभनमें रमिहै, कुगुरुन नमिहै भव भव भ्रमिहै कूर ॥१३४६॥ किरिया लखि ऐसी भाषी तैसी तजिये वैसी वीर, तातै सुख पावे, अघ नसि जावे जो आवे मन धीर; जिनभाषित कीजै निजरस पीजै कुगति है दीजै नीर, भवभ्रमणहि छांडो सकतिह मांडो उतरो भवदधि तीर ॥१३४७॥ भांगको तुरत छोड़ना चाहिये । यह भांग सभी मतोंमें निंदित है अर्थात् सभी धर्मों में इसका निषेध किया गया है और यह अर्थ अर्थात् धन एवं पुण्यका नाश करनेवाली है ॥१३४४।। यह विजया जगतमें बहुत प्रचलित है, यह मिथ्यात्वकी क्रिया है, अदयाका कारण है, शुभगतिका निवारण करनेवाली है, भवभ्रमण करानेवाली है, मनुष्यको अविवेकी बना देती है, कुटेवी है अर्थात् इसकी आदत पड़ जाने पर कठिनाईसे छूटती है, भलाईको छोड़नेवाली है, जिसके मनमें यह आ जमती है उसका धर्ममें चित्त नहीं लगता और वह पाप ही करता रहता है। उसके पापका वर्णन कौन कर सकता है ? ॥१३४५॥ __ जो इसमें आसक्त होता है, वह भूतग्रस्त जैसा हो जाता है, स्त्रीके खोटे वचन उसे सहन करने पड़ते हैं, मनमें भयभीत रहता है, जो भाये सो बकता है, मनुष्यपदको व्यर्थ गँवाता है, अत्यधिक पापका उपार्जन करता है, पाप करके मनमें आनन्दित होता है, कुगुरुओंको नमन करता है, और भवभवमें भटकता फिरता है, प्रकृतिका क्रूर हो जाता है ॥१३४६।। ग्रन्थकार कहते हैं कि विजयापान करनेवालोंकी जैसी क्रिया देखी है वैसी मैंने कही है। हे वीर पुरुषों ! इस विजयाका त्याग करो, इससे सुख प्राप्त होगा, पाप नष्ट होंगे और मनमें दृढ़ता आवेगी। जिनेन्द्र भगवानने जो कहा है सो करो, आत्मरसका पान करो, कुगतिको जलांजलि दो, भवभ्रमणको छोड़ो, आत्मशक्तिको बढ़ाओ, और संसारसागरसे पार होओ॥१३४७॥ १ अस मनमें रमि है ख० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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