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क्रियाकोष
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अति रोग बढावै श्वास, ऐसै नरकी का आस । दोषीक जानि कर तजिये, जिन आज्ञा हिरदय भजिये ॥१३३८॥ उपवास करै दे दान, किरिया पालै धरि मान । पीवे हैं तमाखू जेह, ताकै निरफल है तेह ॥१३३९॥ अघ तरु सिंचन जल धार, शुभ पादप हनन कुठार । बहु जनकी झुठि घनेरी, दायक गति नरकहि केरी ॥१३४०॥ इह काम न बुधजन लायक, ततक्षिण तजिये दुखदायक । केउ सुंधै केऊ खैहै, तेऊ दूषणको लेहै ॥१३४१॥
दोहा
भांग कर॒भो खात ही, तुरत होत बेरौस । काम बढावन अघ करन, श्री जिनवरपद सोस ॥१३४२॥ अतीचार मदिरा तणों, लागै फेर न सार । जगमें अपजस विस्तरै, नरक लहै निरधार ॥१३४३॥ लखहु विवेकी दोष इह, तजहु तुरत दुखधाम ।
षट मतमें निन्दित महा, हनै अरथ शुभ काम ॥१३४४॥ ___ वह श्वास संबंधी अनेक रोग बढ़ाती है। ऐसे रोगी मनुष्यकी क्या आशा है ? इसलिये इसे दोषयुक्त जानकर छोड़ना चाहिये और हृदयमें जिनेन्द्र भगवानकी आज्ञाको धारण करना चाहिये॥१३३८॥
जो उपवास करते हैं, दान देते हैं, क्रियाका पालन कर अर्थात् शोधके भोजनादिका अभिमान करते हैं परन्तु तमाखू पीते हैं तो उनके वे सब कार्य निष्फल हैं । यह तमाखू पापरूपी वृक्षको सींचनेके लिये जलकी धारा है, पुण्यरूपी वृक्षको काटनेके लिये कुल्हाड़ी है, अनेक जनोंकी जूठन है, और नरक गतिको देनेवाली है। यह कार्य ज्ञानीजनोंके योग्य नहीं है, महा दुःखदायक है इसलिये इसका तत्काल त्याग कीजिये। कितने ही मनुष्य तमाखू खाते हैं और कितने ही सूंघते हैं वे भी उपर्युक्त दोषोंको प्राप्त होते हैं ।।१३३९-१३४१॥
आगे विजया अर्थात् भांगके दोष कहते हैं-भांग खानेसे मनुष्यके तुरत रंगढंग बदल जाते हैं, पाँव लुढकने लगते हैं। यह भांग कामवासनाको बढ़ानेवाली और पाप करानेवाली हैं तथा जिनेन्द्रदेवकी चरणसेवासे विमुख करानेवाली है ॥१३४२॥ भांगमें मदिरापानका अतिचार लगता है इसमें कुछ भी शंका नहीं हैं। इससे जगतमें अपयश फैलता है और मृत्युके बाद अवश्य नरककी प्राप्ति होती है ।।१३४३॥
ग्रंथकार कहते हैं कि विवेकीजनोंको भांगके ऐसे दोष देखकर अनेक दुःखोंके घररूप इस
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