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________________ १९२ श्री कवि किशनसिंह विरचित दोहा तुरक आनके देवको, मानत नाहि लगार । हिन्दू जैनी मूढमति, सेवै वारम्वार ॥१२१२॥ या समान मिथ्यात जग, और नहीं है कोय । दुखदायक लखि त्यागिहै, महाविवेकी सोय ॥१२१३।। सवैया भादों वदि नौमी दिन गारिको बनाय घोडो, तापरि चढावै चहुं वाण गोगो नाम ही; छाबडीमें मेलि कुम्भकारि तिय कर धर, लोभते पुजावत फिरै है धामधाम ही; ताकों सुखदाई जानि मूढमति मानि ठानि, देत दान पाय नमि सेवे गाम गाम ही; मिथ्यातकी रीति एह करै निरबुद्धि जेह, कुगति लहै है जेह वांका दुख पावही ॥१२१४॥ भादों वदि बारस दिवस पूजै वछ गाय, रातिको भिजोवे नाज लाहणके काम ही; निकसै अंकुरा तिनि मांहि जे निगोद रासि, हरष अधिक धारि बांटै ठाम ठाम ही; वहाँका विधिविधान करवाते हैं, फातिहा पढ़वाते हैं और जिंदा दरवेशको जिमाते हैं यह सब मिथ्यात्वके उदयसे प्रचलित कलिकालकी रीति है ॥१२११॥ ग्रन्थकर्ता कहते हैं कि तुरक (मुसलमान) दूसरोंके देवताको नहीं मानते हैं परन्तु अज्ञानी हिन्दू और जैन दूसरोंके देवताकी बार बार सेवा करते हैं। संसारमें इसके समान अन्य मिथ्यात्व नहीं हैं । इसलिये जो महा विवेकी हैं वे इन देवी-देवताओंको दुःखदायक जान कर इनका त्याग करते हैं ॥१२१२-१२१३॥ भादों वदी नवमीको मिट्टीका घोड़ा बना कर उस पर गोगो नामक असवारको चढ़ाते हैं पश्चात् बावड़ीमें डाल देते हैं। कुम्हारकी स्त्री इस सवार सहित मिट्टीके घोड़ेको हाथमें लेकर लोभवश घर घर पुजाती फिरती है। अज्ञानी लोग उसे सुखदायी जान कर दान देते हैं, गाँव गाँवके लोग चरणोंमें नमस्कार कर उसकी सेवा करते हैं। जो निर्बुद्धि मनुष्य मिथ्यात्वकी इस रीतिको करते हैं वे दुर्गतिको प्राप्त कर तीव्र दुःख पाते हैं ॥१२१४॥ कितने ही लोग भादों वदी द्वादशीको गाय-बछड़ेकी पूजा करते हैं, वितरण करनेके लिये रातमें अनाजको भिगो देते हैं। जब उनमें अंकुर निकल आते हैं तब जगह जगह उस अनाजको हर्षसे बाँटते हैं। वे अंकुर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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