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श्री कवि किशनसिंह विरचित
पापी कुछ भेद न जानें, मनमें उच्छव अति ठानें । सो पापी महादुख पावे, भव भामरि अन्त न आवे || १९६६॥
भरि तेल काकडा बालें, बालक हींडहि कर वालें । घर घर लीये सो डोले, बालक हींडहि वच बोले ॥११६७॥
वे देय पईसा रोक, ढिग करे एकसा थोक । मरयाद घटै ता माहीं, ताकी तो कहा चलाहीं ॥ ११६८ ॥ बहु हीं मांहि त्रस जीव, जलि है नहि संख्या कीव । इह पाप न मनमें आवे, सुत लखि दम्पति सुख पावे ।। ११६९॥ ते पापी जानो जोर, पडिहैं जो नरक अघोर । भविजन जो निज हितदाई, किरिया वह हीण तजाई ॥ ११७०॥ कातिक सुद एकै जानी, गोधनको गोबर " आनी । सांथ्यो निज बार करावे, गोर्धन तसु नाम धरावे ।। ११७९॥ जब सांझ बैल घर आवे, पूजै तिन अति हरषावे । सांथ्यो निज पाय खुदावे, मिथ्यात महा उपजावे ||११७२ ॥
जानते और मनमें बड़ा उत्सव मानते हैं । फलस्वरूप ऐसे पापी जीव महा दुःख पाते हैं और उनके . भवभ्रमणका अन्त नहीं आता ।।११६५-११६६।।
कुछ बालक दीपावलीके समय एक बर्तनमें तेल भर उसमें बिनौला जलाते हैं, भद्दे भद्दे वचन बोलते हुए उसे घर घर ले जाकर घूमते हैं, घर वाले उन बालकोंको पैसा देते हैं और वे उन्हें इकट्ठा करते जाते हैं। पैसा माँगनेसे आन-मर्यादा घटती है इसकी तो बात ही क्या है ? बहुतसे सजीव उसमें जल कर मरते हैं उनकी संख्या नहीं है । ऐसा काम करनेका भाव तो पापी मनुष्योंके ही मनमें आता है और अपने बालकोंको ऐसा करते देखकर उनके माता पिता सुखी होते हैं । ऐसे लोग पापी हैं तथा भयंकर नरकमें पड़ते हैं । इसलिये हे भव्यजनों ! वह काम करो जो अपने लिये हितकारक हो । इस हीन क्रियाको छोड़ो ।।११६७-११७०।।
कुछ लोक कार्तिक सुद एकम के दिन गायोंका गोबर इकट्ठा कर घरके द्वार पर गोर्धनकी स्थापना करते हैं । एक साथिया बनाते हैं, संध्याके समय जब बैल घर आते हैं तब उनकी पूजा करते हैं तथा बैलोंके पाँवोंसे साथिया खुदवाते हैं, उनका यह कार्य महा मिथ्यात्वको उत्पन्न करने वाला है।।११७१-११७२ ।। इन हीन क्रियाओंको करनेवाले मनुष्य नरकमें जाते हैं। दीवालीके १ घोर न० स० २ लखि स० ३ जानो न० स० ४ आनो न० स०
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