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________________ १६६ श्री कवि किशनसिंह विरचित ग्रीषम गिरि सिर रवि - ताप, सिला ऊपरि ठाडे आप । वरषा रितु तरु-तल ठाडे, उपसर्ग सहे अति गाडे ॥१०३८॥ हिम नदी तलाब नजीक, मुनि सहहि परिषह ठीक । निज आतमसों लव लागी, पर वस्तु सकल परित्यागी ॥ १०३९॥ पूजक निंदक सम जाके, तृण कनक समान जुता । इत्यादिक मुनि गुणधार, कहतें लहिये नहिं पार | १०४०॥ इनतें उलटी जे रीत, धारै ढूँढिया विपरीत । आहार जु सीलो बासी, रोटी, रबडी य गरासी ॥१०४१॥ कांजी दुय तिय दिन केरी, बहु त्रस जीवनिकी वैरी । तरकारी हरित अनेक, लें पापी धरि अविवेक ॥१०४२ ॥ आदो कंदो अर सूरण, मूला त्रस थावर ए लेय अहार मझारी, बहु केम दया तिन थाणो त्रस जीवन धाम, फासू गिनि लेहें फुनि काचो दूध गहाई, बहु वार लगै दुय घडी गये तिह मांही, पंचेन्द्री जिय महिषी गौ तणौ जु खीर, तैसे है जीव गहीर ||१०४५ || उपजाही । पूरण । पारी || १०४३॥ होकर उपसर्ग सहन करते हैं, शीत ऋतुमें नदी तालाब आदिके समीप ध्यानस्थ होकर परिषह विजय करते हैं, उनकी रुचि आत्मासे लगी हैं, वे समस्त परवस्तुओंके त्यागी हैं, उनके लिये पूजक और निन्दक तथा तृण और सुवर्ण समान है । इत्यादिक अनन्त गुणोंसे सहित होते हैं, उनके गुणका कथन करते हुए अन्त नहीं आता ||१०३७-१०४०।। Jain Education International ताम | रखवाई || १०४४॥ यह यथार्थ मुनियोंका स्वरूप कहा परन्तु ढूंढ़िया इससे विपरीत प्रवृत्ति करते हैं । वे घर घर जा कर आहार लाते हैं जैसे ठंडी बासी रोटी, रबडी, साग, दो तीन दिनकी छांछ, जिसमें बहुत जीवों की उत्पत्ति हो जाती है, नाना प्रकारकी हरी सब्जी, अदरक, जमीकन्द, सूरण तथा अनेक त्रस स्थावर जीवोंसे युक्त मूली आदिको लाते हैं । इनके दयाका पालन किस प्रकार होता है ? अर्थात् किसी प्रकार नहीं होता । जिसमें अनेक त्रस जीवोंका घर है ऐसे अथानेको प्रासुक मान कर वे लेते हैं । बहुत कालका दुहा हुआ कच्चा दूध वे ग्रहण करते हैं जिसमें दो घड़ीके पश्चात् पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न हो जाते हैं। गाय भैंसका वे दूध लेते हैं जिसमें अनेक जीव उत्पन्न होते हैं ।। १०४१ - १०४५।। वे अज्ञानी इस भेदको नहीं जानते हैं । अग्नि जलानेमें पाप मानते हैं। जिसमें पंचेन्द्रिय जीव तक का निवास है उसे प्रासुक गिनते हैं । जिस अन्नकी दो For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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