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________________ क्रियाकोष मुनि नगनरूपको धारै, चारित तेरह विधि पारै । षटकाय दयाव्रत राखे, नित वचन सत्य - जुत भाखै ॥ १०३१॥ आदान अदत्तहि टारे, सीलांग भेद विधि त्यागे परिग्रह चौबीस, गोपे तिहुँ गुपति ईर्यापथ सोधत चालै, हित मित भाषा हि श्रावक घरि असन जु होई, विधि जोग जेम भोजनके दोष छियाली, निपजावे श्रावक टाली । चरियाको मुनिवर आही, श्रावक तिन ले पडिगाही ||१०३४ ॥ मुनि अन्तराय चालीस, ऊपर छह टाल जु तीस । पावे तो लेहि अहार, इम एषणा समिति विचार ॥१०३५॥ आदान निक्षेपण धारे, पंचम समिति विधि पारे । इम चारित तेरह भाखै, जैसे जिनवाणी आखै ॥१०३६ ॥ १६५ पारे । मुनीस ॥१०३२॥ गुण मूल अट्ठाइस धारी, उत्तर गुण लख असि चारी । गिरि शिखर कंदरा थान, निरजन वन धरिय सुध्यान ॥ १०३७॥ Jain Education International संभालै । निपजोई ॥ १०३३॥ यथार्थ मुनियोंका स्वरूप तो यह है कि वे शरीरसे नग्न रहते हैं, तेरह प्रकारके चारित्रका पालन करते हैं, षट्कायके जीवों पर दया व्रत रखते हैं, नित्य प्रति सत्य वचन बोलते हैं, अदत्त वस्तुको ग्रहण नहीं करते, शीलका विधिपूर्वक पालन करते हैं, चौबीस प्रकारके परिग्रहका त्याग करते हैं, मन वचन कायको वश कर तीन गुप्तियोंको धारण करते हैं ।। १०३१-१०३२॥ वे ईर्या पथका शोधन करते हुए चलते हैं, हित मित वचन बोलते हैं, श्रावकके घर जाकर विधिपूर्वक बने हुए आहारको ग्रहण करते हैं, श्रावकोंके द्वारा होनेवाले छियालीस दोषोंको टालते हैं अर्थात् इन्हें दूर कर आहार करते हैं, चर्याके लिये जाने पर श्रावक उन्हें पडगाहते हैं, + छियालीस अंतराय टाल कर आहार लेते हैं इस प्रकार एषणा समितिका पालन करते हैं ।। १०३३-१०३५।। पीछी कमण्डलु तथा पुस्तक आदि उपकरणोंको देखभाल कर रखने उठाने से आदान-निक्षेपण समिति पालते हैं और निर्जन्तु स्थानमें मल-मूत्र क्षेपण करनेसे पाँचवीं प्रतिष्ठापना समितिमें पारंगत है, इस तरह तेरह प्रकारके चारित्रका जिनागमके अनुसार पालन करते हैं ॥१०३६|| वे अट्ठाईस मूल गुणों और चौरासी लाख उत्तर गुणोंके धारी हैं, पर्वतके • शिखर और गुफा आदि निर्जन स्थानोंमें ध्यान धारण करते हैं, ग्रीष्म ऋतुमें पर्वतके शिखर पर सूर्यका संताप सहन करते हुए संतप्त शिलाओं पर खड़े रहते हैं, वर्षा ऋतुमें वृक्षके नीचे खड़े For Private & Personal Use Only १ थाई न० २ निपजाई न० + धर्मामृत ग्रंथमें भोजनके ३२ अंतराय कहे गये हैं । यहाँ पर छियालीस कैसे कहे है ? सो समझमें नहीं आता । www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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