SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४६ श्री कवि किशनसिंह विरचित याही व्रतको धारी पूर्व ही बहुत पुरुष तिय, तद्भव सुरपद लहै त्रिविध पालिउ, हरषित हिय; अनुक्रम मोक्षहि गये धरि सुदीक्षा जिनि भारी, सुख अनन्त नहि ओर, सिद्धपदके जे धारी; नर नारी अजहुं व्रत पालि है मन वच काय त्रिशुद्धि कर । लहि शर्म देवगतिका अधिक, क्रमतै पहुँचै मुकति घर ॥ ९०७॥* दर्शन - ज्ञान - चारित्र कथन दोहा त्रेपन किरियाके विषै, दरसण ज्ञान प्रमाण । अवर त्रितय चारित तणों, कछु इक कहों बखाण ॥ ९०८ ॥ निज आतम अवलोकिये, इह दर्शन परधान । तस गुण जाणपनों विविध, वहै ज्ञान परवान ॥ ९०९ ॥ तामें थिरता रूप ह्वै, रहै सुचारित होय । रत्नत्रय निश्चय यहै, मुकति-बीज है सोय ॥ ९९० ॥ मन वचन कायासे हर्षित चित्त होकर इसका पालन किया और उसी भवसे देवपद प्राप्त किया । पश्चात् अनुक्रमसे अनन्त सुखके धारक सिद्धपदको प्राप्त किया । इस समय भी जो नर नारी मन वचन कायाकी विशुद्धता पूर्वक इस व्रतका पालन करते हैं वे देवगतिको प्राप्त कर क्रमसे मुक्तिमंदिरको प्राप्त करते हैं अर्थात् मोक्ष जाते हैं ॥ ९०७॥ दर्शन ज्ञान चारित्र कथन त्रेपन क्रियाओंमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों प्रधान हैं इसलिये इनका कुछ व्याख्यान करते हैं ॥९०८|| अपने आत्माका अवलोकन करना सो दर्शन है, उसके विविध गुणोंको जानना सो ज्ञान है और उसमें जो स्थिरता है वह सम्यक्चारित्र है । निश्चयसे यही रत्नत्रय है और यही मोक्षका बीज अर्थात् कारण है । भावार्थ- परद्रव्योंसे भिन्न ज्ञाता द्रष्टा स्वभाववाले आत्माका श्रद्धान होना निश्चय सम्यग्दर्शन है, उसके विविध गुणोंका ज्ञान होना निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उसी आत्मामें उपयोगकी स्थिरता होना निश्चय सम्यक्चारित्र है । यह निश्चय रत्नत्रय मोक्षका साक्षात् मार्ग है ।। ९०९-९१०।। १ तिहि ठौर न० * ९०७ वें छन्द के आगे न० और स० प्रतिमें निम्नलिखित छन्द अधिक है Jain Education International भोजन जे भवि करहि तजे निशि चार अहार ही, सो निशि भोजन तजन वरत नित प्रति जो पार ही । तसु वरस एकके नियमको मन वच क्रम यह जानियो, उपवास मास छहको जिसों फल जिनराज बखानियो । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy