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श्री कवि किशनसिंह विरचित
याही व्रतको धारी पूर्व ही बहुत पुरुष तिय, तद्भव सुरपद लहै त्रिविध पालिउ, हरषित हिय; अनुक्रम मोक्षहि गये धरि सुदीक्षा जिनि भारी, सुख अनन्त नहि ओर, सिद्धपदके जे धारी; नर नारी अजहुं व्रत पालि है मन वच काय त्रिशुद्धि कर । लहि शर्म देवगतिका अधिक, क्रमतै पहुँचै मुकति घर ॥ ९०७॥* दर्शन - ज्ञान - चारित्र कथन
दोहा
त्रेपन किरियाके विषै, दरसण ज्ञान प्रमाण । अवर त्रितय चारित तणों, कछु इक कहों बखाण ॥ ९०८ ॥ निज आतम अवलोकिये, इह दर्शन परधान । तस गुण जाणपनों विविध, वहै ज्ञान परवान ॥ ९०९ ॥ तामें थिरता रूप ह्वै, रहै सुचारित होय । रत्नत्रय निश्चय यहै, मुकति-बीज है
सोय ॥ ९९० ॥
मन वचन कायासे हर्षित चित्त होकर इसका पालन किया और उसी भवसे देवपद प्राप्त किया । पश्चात् अनुक्रमसे अनन्त सुखके धारक सिद्धपदको प्राप्त किया । इस समय भी जो नर नारी मन वचन कायाकी विशुद्धता पूर्वक इस व्रतका पालन करते हैं वे देवगतिको प्राप्त कर क्रमसे मुक्तिमंदिरको प्राप्त करते हैं अर्थात् मोक्ष जाते हैं ॥ ९०७॥
दर्शन ज्ञान चारित्र कथन
त्रेपन क्रियाओंमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीनों प्रधान हैं इसलिये इनका कुछ व्याख्यान करते हैं ॥९०८|| अपने आत्माका अवलोकन करना सो दर्शन है, उसके विविध गुणोंको जानना सो ज्ञान है और उसमें जो स्थिरता है वह सम्यक्चारित्र है । निश्चयसे यही रत्नत्रय है और यही मोक्षका बीज अर्थात् कारण है । भावार्थ- परद्रव्योंसे भिन्न ज्ञाता द्रष्टा स्वभाववाले आत्माका श्रद्धान होना निश्चय सम्यग्दर्शन है, उसके विविध गुणोंका ज्ञान होना निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उसी आत्मामें उपयोगकी स्थिरता होना निश्चय सम्यक्चारित्र है । यह निश्चय रत्नत्रय मोक्षका साक्षात् मार्ग है ।। ९०९-९१०।।
१ तिहि ठौर न०
* ९०७ वें छन्द के आगे न० और स० प्रतिमें निम्नलिखित छन्द अधिक है
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भोजन जे भवि करहि तजे निशि चार अहार ही, सो निशि भोजन तजन वरत नित प्रति जो पार ही । तसु वरस एकके नियमको मन वच क्रम यह जानियो, उपवास मास छहको जिसों फल जिनराज बखानियो ।
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