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________________ क्रियाकोष दोहा अब अपात्रके दानतैं, जैसो फल लहवाय । तैसो कछु वरनन करूं, सुनहु चतुर मन लाय ॥ ५८० ॥ जो अपात्रको चिहन है, पूरव को बनाय । दोष लगहि पुनरुक्तकौं, यातैं अब न कहाय ॥५८१॥ सोरठा जो अपात्रको दान, मूढ भक्ति कर देत है । सो अतीव अघ थान, भव भ्रमिहै संसारमें || ५८२ || छन्द चाल जैसे ऊषरमें नाज, वाहै बहु निपजन काज । मिहनति सब जावै योंही, कण नाज न उपजै क्योंही ॥ ५८३॥ तिम भूमि अपातर खोटी, पावै विपदादिक मोटी । दुरगति दुखकारण जाणी, तिनि दान न कबहूं ठाणी ||५८४ ॥ धेनूनैं तृणहि चरावे, तापैं तो दूधहि पावे | अति मिष्ट पुष्टकर भारी, बहुतैं जियको सुखकारी ॥५८५ ॥ तिम पात्र हि दान जु दीजै, ताको फल मोटो लीजै । सुरगतिमें संसय नांही, अनुक्रम शिवथान लहांही ॥ ५८६॥ Jain Education International अब आगे अपात्र दानसे जैसा फल प्राप्त होता है उसका कुछ वर्णन करता हूँ । हे चतुरजनों ! मन लगा कर उसे सुनो। अपात्रके जो चिह्न हैं उनका पूर्वमें वर्णन किया जा चुका है इसलिये पुनरुक्ति दोषके भयसे इस समय वर्णन नहीं कर रहा हूँ ।। ५८०-५८१।। ९१ जो अज्ञानी जन भक्तिपूर्वक अपात्रको दान देते हैं वे अत्यधिक पापके स्थान होते हैं और संसारमें परिभ्रमण करते हैं ।। ५८२ | जैसे कोई मनुष्य अधिक अन्न उत्पन्न करनेकी इच्छासे ऊषर जमीनमें अन्न बोता है तो उसका सब परिश्रम व्यर्थ जाता है । अनाजका दाना भी उत्पन्न नहीं होता। वैसे ही अपात्र खोटी भूमिके समान है। इसे दान देनेवाला व्यक्ति बहुत भारी दुःखको प्राप्त होता है । अपात्रदान दुर्गतिके दुःखका कारण है ऐसा जान कर अपात्रको कभी दान नहीं देना चाहिये ।। ५८३ - ५८४ | जिस प्रकार गायको घास चराते हैं तो उससे अत्यन्त मिष्ट, पुष्टिकारक और सुखदायक दूध प्राप्त होता है उसी प्रकार पात्रके लिये जो दान दिया जाता है, उसका बहुत भारी फल प्राप्त होता है । साक्षात् तो देव गतिको प्राप्त होता है और अनुक्रमसे मोक्षस्थानको प्राप्त होता है इसमें संशय नहीं है ।। ५८५ - ५८६ । १ खान स० न० २ बैहे स० न० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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