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________________ ९० श्री कवि किशनसिंह विरचित कल्पवृक्ष दस विधि सुखकार, नानाविधि दे भोग अपार । पूरण आयु करवि सुर थाय, नाना सुख भुगतें अधिकाय ॥५७३॥ दोहा जघन्य सुपात्र आहार फल, कह्यौ जेम जिनवानि । अबैं कुपात्र आहार फल, सुनि ल्यौं भवि निज कानि ॥५७४॥ चौपाई द्रव्य मुनी श्रावक हू एह, विनु समकित किरिया उत जेह । बाहिर समकित कैसी रीत, दरसण विनु सरधा विपरीत ॥५७५॥ इन तीनहुं कुपात्रको दान, देही तस फल सुणहु सुजान । जाय कुभोगभूमिकै मांहि, उपजै मनुष्य हीण अधिकांहि ॥५७६॥ अवर सकल मानवकी देह, मुख तिरयंच समान है जेह । हाथी घोडा बैल वराह, कपि गर्दभ कूकर मृग आह ॥५७७॥ लंबकरण अरु इक टंगिया, उपजै जुगल बराबर जिया । एक पल्य आयुर्बल पूर, माटी मीठा तृण अंकूर ॥५७८॥ तिनहि खांहि निज उर भरेहि, २रहै नगन नहि मंदिर तेह । मरि वितर भावन जोयसी, खै भुगतें सुख सुरविधि जिसी ॥५७९॥ होता। दश प्रकारके कल्पवृक्षोंसे नाना प्रकारके सुखदायक भोग प्राप्त होते हैं। आयु पूर्ण कर नियमसे वे देव होते हैं और वहाँ नाना प्रकारके सुखोंका अतिशय उपभोग करते हैं ॥५७१-५७३॥ जिनागममें जघन्य पात्रको आहार देनेका जैसा फल कहा है वैसा हमने कहा है। हे भव्यजीवों ! अब अपने कानोंसे कुपात्रके आहार दानका फल सुनो ॥५७४॥ द्रव्यलिंगी मुनि, द्रव्यलिंगी श्रावक और बाह्यमें सम्यग्दृष्टि जैसी क्रियाको करनेवाला परन्तु अंतरंगमें सम्यग्दर्शनसे रहित विपरीत श्रद्धानी मनुष्यके भेदसे कुपात्रके तीन भेद हैं। इन तीनों प्रकारके कुपात्रोंको दान देनेका फल सुनो। कुपात्र दानके फलसे मनुष्य कुभोगभूमिमें उत्पन्न होता हैं। वहाँ उत्पन्न होनेवाले जीवोंका हीनाधिकता लिये हुए अन्य शरीर तो मनुष्यके समान होता है परन्तु मुख तिर्यंचोंके समान होता है। हाथी, घोड़ा, बैल, सूकर, वानर, गर्दभ, श्वान और मृग आदिके समान उनका मुख होता है। कोई लम्बे कानवाले होते हैं और कोई एक टांगके होते हैं। बराबरकी आयुवाले युगल होते हैं। एक पल्य प्रमाण उनकी आयु होती है। मिट्टी और मधुर स्वाद वाले तृणांकुरोंको खाकर वे अपना पेट भरते हैं। शरीरसे नग्न रहते हैं। उनके मकान नहीं होते। मरकर वे व्यन्तर, भवनवासी अथवा ज्योतिषी देवोंमें उत्पन्न होकर वहाँके सुख भोगते हैं ॥५७५-५७९॥ १ मधुर तणो अंकूर स० २ रहे नगन ही मंदिर केहि स० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001925
Book TitleKriyakosha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKishansinh Kavi
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year2005
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ritual_text, Ritual, & Principle
File Size21 MB
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