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श्री कवि किशनसिंह विरचित
अब इनकों आहार जू, श्रावक जिहि विधि देव । सो वरनन संक्षेपतैं, भवि चित धरि सुनि लेव ||५३० ॥ दोष छियालिस टालिकै, श्रावकके घरमांहि । व्रती जोग निपजै असन, सुखकारी सक नांहि ||५३१ ॥
छन्द चाल
दिनपतिकी घटिका सात, चढिया श्रावक हरषात । द्वारापेखणकी वार, फासू जल निज कर धार ||५३२|| मुनिवर आयो पडिगा है, अति भक्तिवंत उरमांहै । दातार तणें गुण सात, ता मांहै है विख्यात ||५३३ || फुनि नवधा भक्ति करेहि, अति पुन्य महा संचेइ । निज जनम सफल करि जाणें, बहुविधि मुनि स्तुति वखा ॥ ५३४॥ मुनिवर वन गमन कराई, पीछै अति ही सुखदाई । भोजनसाला में जाई, जीमें श्रावक सुचि पाई ॥ ५३५ ॥ जो द्वारापेखण मांही, मुनिवर नहिं जोग मिलाहीं । तो निज अलाभ करि जाणै, चिंता मनमैं अति आ || ५३६॥ हियमैं ऐसी ठहराय, हम अशुभ उदै 'अधिकाय । करिहै श्रावक उपवास, अथवा रसत्याग प्रकास ||५३७ ॥
विधिका संक्षेपसे वर्णन करता हूँ सो हे भव्यजनों ! चित्तको स्थिर कर सुनो ॥ ५३०॥ छियालीस दोष टालकर व्रतीजनोंके योग्य आहार श्रावकके घर बनता है इसमें संशय नहीं है ॥५३१॥
जब सूर्य सात घड़ी चढ़ जाता है तब श्रावक यह विचार कर हर्षित होता है कि द्वाराप्रेक्षणका समय हो गया । वह अपने हाथमें प्रासुक जलका कलश ले द्वार पर खड़ा होता है । ज्योंही मुनिराज आते हैं त्यों ही वह हृदयमें भक्तियुक्त होता हुआ उन्हें पड़गाहता है । दातारमें जो श्रद्धा, भक्ति, तुष्टि आदि सात गुण बतलाये हैं वे उस श्रावकमें होते हैं। पड़गाह कर वह नवधाभक्ति कर महान पुण्यका संचय करता है, अपने जन्मको सफल जानता हुआ नाना प्रकारसे मुनिराजकी स्तुति करता है । जब आहार लेकर मुनिराज वनको चले जाते हैं तब वह अत्यन्त सुखका अनुभव करता है । पश्चात् अपनी भोजनशालामें जाकर शुद्धतापूर्वक भोजन करता है । यदि कदाचित् द्वाराप्रेक्षण करने पर मुनिराजका योग नहीं मिलता है तो अपने अलाभकर्मका उदय जान मनमें चिन्ता करता है । वह ऐसा विचार करता है कि आज हमारे अशुभकर्मका तीव्र उदय है जिसके कारण मुनिराजका योग नहीं मिला । ऐसा विचार कर वह श्रावक उपवास करता है अथवा रस परित्याग कर भोजन करता है ।। ५३२-५३७॥
१ संख्यात न० २ थुतय स० सतुति न० ३ ठाणे स० ४ कछु आय स०
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