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क्रियाकोष
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उतकिष्ट अपात्र जै लच्छन, परखें अति परम विचच्छन । ऐसें ही मध्यम जानौ, समकित विनु व्रत मनि आनौ ॥५२३॥ तनु स्वेत वसनके धारी, मानै हम हैं ब्रह्मचारी । दूजौ अपात्र लखि यों ही, सुनि जघन अपातर जो ही ॥५२४॥ गृहपति सम वसन धरांही, मिथ्या मारग चलवांही ।। नर नारिन कौं निज पाय, पाडै अति नवन कराय ॥५२५॥ वचन आप चिरंजी भाई, मनमैं निज गुरुपद राखें ।। मिथ्यात महा घट व्यापी, ए जघन 'अपात्र जे पापी ॥५२६॥ बाहिज अभ्यंतर खोटे, निति पाप उपावै मोटे । श्रुतदेव विनौ नहि जाणे, नवरस युत ग्रंथ वखाणै ।।५२७॥ रुलिहै भवसागर मांही, यामैं कछ संसै नांही । इनके वंदक जे जीव, दुरगति महि भमइ सदीव ॥५२८॥
दोहा पात्र कुपात्र अपात्रके, भेद भने सब पांच । तिनकी साखा पंचदस, चिह्न कहै सब सांच ॥५२९॥
इन चिह्नोंसे उनकी परीक्षा करते हैं। इन्हींके समान मध्यम अपात्रोंको जानना चाहिये। ये सम्यक्त्व रहित होते हुए व्रतोंके पालनकी इच्छा रखते हैं, शरीर पर श्वेत वस्त्र धारण करते हैं और अपनेको ब्रह्मचारी मानते हैं, इन्हें द्वितीय अपात्र जानना चाहिये। अब जो जघन्य अपात्र हैं उनका वर्णन सुनो ॥५२२-५२४॥
जो गृहस्थोंके समान वस्त्र रखते हैं, मिथ्यामार्ग चलाते हैं, नर नारियोंसे अपने पैर पुजवाते हैं, नमस्कार कराते हैं, आशीर्वादके रूपमें उन्हें 'चिरंजीव' कहते हैं, मनमें अपने आपको गुरु मानते हैं, परन्तु जिनके हृदयमें महा मिथ्यात्व व्याप्त हो रहा है वे पापाचारी जघन्य अपात्र हैं। ये जघन्य अपात्र बाह्य और अंतरंगके खोटे हैं, निरंतर स्थूल पाप करते हैं, देव शास्त्रकी विनय नहीं जानते, नौ रसोंसे युक्त मिथ्या शास्त्रोंका व्याख्यान करते हैं। ग्रंथकर्ता कहते हैं कि ऐसे जीव संसारसागरमें ही रुलते हैं इसमें कुछ भी संशय नहीं है। जो जीव इनकी वंदना करते हैं वे सदा दुर्गतियोंमें भ्रमण करते हैं ॥५२५-५२८॥
पात्र, कुपात्र और अपात्रके पाँच भेद कहे। इनके शाखा भेद पंद्रह हैं। इन सबके जो यथार्थ लक्षण है उनका कथन किया हैं ॥५२९।। अब श्रावक इन्हें जिस विधिसे आहार देता है उस
१ अपातर पापी न० स०
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