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________________ विस्तृत विवेचना प्रस्तुत की गई है। इसमें ११ पल्लव हैं। प्रथम पल्लव में धातुस्थ अनुबन्धों पर विचार किया गया है। द्वितीय से दशम पल्लव तक नौ गणों का संग्रह है जबकि ग्यारहवें पल्लव में सौत्र धातुएँ दी गई हैं। हैमधातुपाठ की विशेषताएँ श्री आर.एस. सैनी ने अपनी पुस्तक 'पोस्ट पाणिनीयन सिस्टम्स ऑफ संस्कृत ग्रामर' में हैमव्याकरण के धातुपाठ की कुछ प्रमुख विशेषताओं पर एक विवरण दिया है। नीचे की पंक्तियों में उस विवरण का सार प्रस्तुत है____ जहाँ तक धातुरूपों का प्रश्न है, आचार्य हेमचन्द्र अपने पूर्ववर्ती सर्ववर्मा के कातन्त्र व्याकरण से प्रभावित प्रतीत होते हैं। हेमचन्द्र ने अपने समय की समस्त धातुपाठों का गम्भीर अध्ययन किया। उन अनुभवों को आधार बनाकर के ही, उनके गुण-दोषों की यथासम्भव मीमांसा करके ही, उन्होनें अपने धातुपाठ का स्वरूप निर्धारित किया। यही कारण है कि वे अपने धातुपाठ को अन्य धातुपाठों में पाये जाने वाले दोषों और न्यूनताओं से मुक्त रखने में सफल हो पाये हैं। हेमचन्द्र ने क्रियारूपों की सिद्धि प्रस्तुत करने से पूर्व वृद्धि और गुण की अवधारणाओं को स्पष्ट किया है। क्योंकि इन दोनों ही अवधारणाओं का धातुओं के स्वरों में परिवर्तन के संबन्ध में बहुत महत्त्व था। उन्होनें क्रियारूपों को सरल और सुबोध बनाने के उद्देश्य से अपने धातुपाठ को धातुओं के स्वरूप के अनुसार अलग-अलग भागों में विभक्त किया है। उन्होंने धातुओं को तीन प्रमुख विभागों में विभक्त किया है। पहले विभाग में वे धातुएँ सम्मिलित हैं जिनका गणों में वर्गीकरण किया गया है। दूसरे विभाग में वे धातुएँ सम्मिलित हैं जो नामपदों में प्रत्यय लगाकर क्रियारूप बनाये जाते हैं। ऐसी धातुओं को संस्कृत व्याकरण के लगभग सभी सम्प्रदायों में नामधातु कहा गया है। तीसरे विभाग में केवल वही धातुएँ सम्मिलित हैं जिनका प्रयोग हैमव्याकरण में किया गया है और लौकिक संस्कृत में जिनका कहीं प्रयोग नहीं होता है। प्रथम विभाग की धातुओं को हेमचन्द्र ने नौ गणों में विभाजित किया है। गणों का यह विभाजन पाणिनिकृत धातुपाठ से भिन्न है, क्योंकि पाणिनि ने अपने धातुपाठ में धातुओं को दस गणों में विभाजित किया है। हेमचन्द्र ने कातन्त्र और काशकृत्स्न धातुपाठ का अनुसरण करते हुए पाणिनि के जुहोत्यादिगण को अदादिगण का ही एक उपविभाग माना है। हेमचन्द्र ने धातुओं को जिन नौ गणों में विभाजित किया है वे निम्न हैं १. अदादिगण २. दिवादिगण ३. स्वादिगण ४. तुदादिगण ५. रुधादिगण ६. तनादिगण ७. क्र्यादिगण ८. चुरादिगण ९. भ्वादिगण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001920
Book TitleDhaturatnakar Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLavanyasuri
PublisherRashtriya Sanskrit Sansthan New Delhi
Publication Year2006
Total Pages646
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Grammar
File Size11 MB
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