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________________ कारागृह से मुक्ति महात्मा ने कहा - " इस भव के पूर्व पाँचवें भव में गर्जन नगर के आषाढ़ नामक ब्राह्मण का तू ' चन्द्रदेव' नामक पुत्र था । तू विद्वान था और राजा द्वारा मान्य था । उस समय वहाँ 'योगात्मा' नामक सदाचारी सन्यासी रहता था । लोग उस पर श्रद्धा रखते थे । उस नगर में विनीत नामक सेठ की वीरमती नामकी बालविधवा पुत्री थी । वह एक माली के साथ चली गई थी । देवयोग से उसी दिन योगात्मा सन्यासी भी वहाँ से प्रस्थान कर कहीं अन्य ग्राम चला गया था। वीरमती उस योगात्मा की उपासिका थी । यद्यपि दोनों के प्रस्थान में कोई सम्बन्ध नहीं था, परन्तु वीरमती का उपासिका होना और दोनों का एक ही दिन चला जाना सन्देह का कारण बन गया । तेने उस सन्यासी पर वीरमती को ले- भागने का आरोप लगा कर राजा के समक्ष और नगर भर में उसे कलंकित कर दिया। लोगों का विश्वास उस सन्यासी पर से उठ गया । सन्यासियों ने भी उसे अपने में से बहिष्कृत कर दिया । इस निमित्त से निकाचित कर्म बाँध कर तू बकरा हुआ । पापोदय से तेरी जीभ कुठित हो गई। तू वहाँ से मर कर शृगाल हुआ । वहाँ से मर कर वेश्या का पुत्र हुआ । वहाँ तू राजमाता का निंदक हुआ, तो जिव्हा का छेदन कर दुःखी किया गया । वहाँ अनशन कर के मर कर तू यह भव पाया । किन्तु पूर्व-भव का शेष रहा फल इस भव में तुझे भोगना है । ककककककककक. ८ १ कारागृह से मुक्ति महात्मा का कथन सुन कर में संसार से विरक्त हो कर सन्यासी बन गया । मेरे गुरु ने मृत्यु के समय मुझे तालोद्धाटिनी और आकाशगामिनी विद्या दी और साथ ही कहा कि तू इस विद्या का उपयोग धर्म और शरीर रक्षा के अतिरिक्त नहीं करना । कभी हास्यवश भी असत्य नहीं बोलना । यदि प्रमादश असत्य बोल दे, तो जलाशय में नाभि प्रमाण जल में खड़ा रह कर एक हजार आठ बार मन्त्र का जाप करना ।" गुरु का देहावसान हो गया और में विषयासक्त हो कर गुरु की शिक्षा भूल गया । मैने दुराचार का बहुत सेवन किया । में उस देवालय में रहता, अपने को झूठमूठ महात्मा बताता और दुराचार करता रहता । मैंने विद्या की शुद्धि भी नहीं की। दुराचार में धन की आवश्यकता होती है । मैने आधी रात को सागरदत्त सेठ के घर चोरी की और आपके नगर-रक्षक द्वारा पकड़ा गया ।" न्यायाधिकारी ने उसके बताये हुए स्थान पर गढ़ा हुआ धन निकलवाया । उसमें वरत्तमरिन ताम्र पत्र नहीं मिला । न्यायाधिकारी ने धनदत्त और बन्धुदत्त से मिला Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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