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________________ तीर्थङ्कर चरित्र-भाग ३ #ৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুকনৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰুৰু मुक्ति प्रदान की । अपना सब माल बेच कर उसने इच्छित लाभ प्राप्त किया और अपने देश के उपयुक्त लाभकारी वस्तुएँ क्रय कर के जहाज भरे और स्वदेश की ओर चला । किंतु प्रतिकूल पवन और प्रचण्ड आँधी से समुद्र डोलायमान हुआ और जहाज टूट कर डूब गया । बन्धुदत्त की जीवन-डोर लम्बी थी। उसे मनुष्य जीवन में भीषण दुःख और सुख का उपभोग कर कर्म-परिणाम भोगना था। उसके हाथ में एक काष्ठ-फलक आ गया। जीवन शेष होने से वह बच गया और वायु के अनुसार बहता हुआ वह रत्नद्वीप पहुँच गया । आम्रफल भक्षण कर और वापिका का जल पी कर स्वस्थ हुआ। फिर वह वनफल खाता और भटकता हआ रत्न-पर्वत पर पहुंचा। वहाँ चारणमुनि ध्यान कर रहे थे । बन्धुदत्त वन्दना कर के सम्मुख बैठ गया । ध्यान पूर्ण होने पर मुनिराज ने वहाँ आने का कारण पूछा । बन्धुदत्त ने लग्न की रात्रि को ही पत्नी का मरण, वाहन नष्ट होने आदि सारी घटनाएँ कह सुनाई । मुनिवर ने उपदेश दिया । बन्धुदत्त ने जिनधर्म स्वीकार किया । उस समय वहाँ चित्रांगद नामक विद्याधर भी उपस्थित था । वह भी महात्मा के दर्शनार्थ आया था। उसने बन्धुदत्त को साधर्मी-बन्धु के नाते उपकृत करने के लिए कहा-" बन्धु ! यदि तुम चाहो, तो मैं तुम्हें आकाशगामिनी विद्या दूं, तुम्हें इच्छित स्थान पर पहुँचा दूं और पत्नी की इच्छा हो, तो वैसा कहो । मैं तुम्हें सुखी करना चाहता हूँ।" बन्धुदत्त ने कहा-"कृपानिधान ! आपके पास विद्या है, तो वह मेरी ही है, स्थान भी गुरुदेव के पुनीत दर्शन का ठीक हैं । विशेष क्या कहूँ ? चित्रांगद समझ गया कि इसने पत्नी के विषय में उत्तर नहीं दिया, अतएव यह इसकी मुख्य इच्छा है। उसने सोचा-'इसे ऐसी कन्या मिलनी चाहिये जो उपयुक्त होते हुए भी लम्बे आयुष्ष वाली हो।' वह उसे अपने साथ ले कर स्वस्थान आया। तदनन्तर विद्याधर ने अपने विश्वस्त परिजनों से बन्धुदत्त के योग्य सुन्दरी प्राप्त करने का विचार किया। यह बात चित्रांगद के भाई अंगद की पुत्री मृगांकलेखा ने सुनी, तो उसने अपनी सहेली प्रियदर्शना का परिचय दिया। कौशांबी के सेठ जिनदत्त की वह प्रिय पुत्री है। वह सुन्दर भी है और गुणवती भी। मैं जब कौशाम्बी गई थी तब प्रियदर्शना के विषय में एक ज्ञानी संत ने कहा था कि-" यह एक महात्मा पुरुष की माता होगी और बाद में दीक्षा लेगी ." मृगांकलेखा की बात सुन कर चित्रांगद ने अमितगंति आदि को कौशाम्बी जा कर उपयुक्त प्रयत्न से बन्धुदत्त को प्रियदर्शना प्राप्त कराने की आज्ञा प्रदान की। बन्धुदत्त सहित वे विद्याधर कौशाम्बी आये। वहाँ भगवान् पार्श्वनाथ बिराजते थे। उन्होंने भगवान् की वन्दना की और धर्मोपदेश सुना। सुश्रावक जिनदत्त भी भगवान् का धर्मोपदेश सुनने आया था। जिनदत्त, अमित गति आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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