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यवनराज ने क्षमा माँगी ၃၆၈၅ ၇၈၀
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वचनों से संतुष्ट करते हुए कहा-"आप निश्चित रहें । हम अभी कुमार की सेवा में उपस्थित होते हैं । कृपया इन मूर्ख सुभटों की असभ्यता भूल जाइये । आप भी क्षमासागर महापुरुष के दूत हैं । हम आप से भी शुभ आशा ही रखते हैं।"
यवनराज ने क्षमा मांगी
दूत को बिदा कर मन्त्री यवनराज के निकट आया और नम्रतापूर्वक बोला;
"महाराज ! युवराज पार्श्वकुमार अलौकिक महापुरुष है । चौसठ इन्द्र और असंख्य देव उनके सेक्क हैं । उनका जन्मोत्सव इन्द्रों ने स्वर्ग से आ कर किया था। यह उनकी हार्दिक विशालता है कि पूर्ण समर्थ होते हुए भी रक्तपात और विनाश से बचने के लिये आपको सन्देश भेजा । आपको इसका स्वागत करना चाहिये था । अब अपना और अपने राज्य का हित इसी में है कि हम चलें और पार्श्वकुमार के अनुशासन को शिरोधार्य करें।"
यवनराज ने अपने वृद्ध मन्त्री का हितकारी परामर्श माना और मन्त्रियों और अधिकारियों को साथ ले कर पार्श्वकुमार के स्कन्धावार में आया। कुमार की महासेना दिव्यरथ आदि देख कर यवनराज भौचक्का रह गया। उसने अपने मन्त्री का उपकार माना कि उसने उसे विनष्ट होने से बचा लिया । यवनराज प्रभु के प्रासाद के द्वार पर आया । द्वारपाल ने कुमार की आज्ञा से उसे प्रभु के समक्ष उपस्थित किया। प्रभु का अलौकिक रूप
और प्रभायुक्त भव्य स्वरूप देखते ही विस्मित हो गया। उसने युवराज को प्रणाम किया। कुमार ने उसे आदरयुक्त बिठाया । वह नम्रतापूर्वक कहने लगा;--
"स्वामिन् ! मैं अज्ञानी रहा । में आपकी महानता, भव्यता और अलौकिकता नहीं जानता था । मैं आपकी परोपकार-प्रियता, दयालुता और अनुपम क्षमा को समझ ही नहीं सका था । आपके निकट तो इन्द्र भी किसी गिनती में नहीं है, फिर मैं तो तृण के समान तुच्छ हूँ। आपने हित-बुद्धि से मेरे पास दूत भेजा। किन्तु में आपकी अनुकम्पा को नहीं जान सका और अवज्ञा कर दी । मैं अपने अपराध की नम्रतापूर्वक क्षमा चाहता हूँ। यद्यपि मैने आपका अपराध किया है, तथापि मेरा अपराध ही मेरे लिये गुणकारक सिद्ध हुआ है । यदि मैं अपराध नहीं करता, तो आपका अलौकिक दर्शन और अनुग्रह प्राप्त करने का सौभाग्य कैसे मिलता ? मैं सोचता हूँ कि मेरा क्षमा मांगना भी निरर्थक है, क्योंकि आपके मन में मेरे प्रति क्रोध ही नहीं है। मैं तो आपके दर्शन से ही कृतार्थ ही गया । अब
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