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पुत्री को माता की शिक्षा
पुत्री को माता की शिक्षा
आश्रम, आश्रमवासियों, वहां के हिरन, शशक, मयूर आदि को और माता को छोड़ते हुए पद्मावती की छाती भर आई । माता ने हृदय से लगा कर शुभाशिष देते हुए कहा--
"पुत्री ! पति का पूर्ण रूप से अनुसरण करना । सौतों के साथ प्रेमपूर्वक व्यवहार करना । यदि वे अप्रसन्न हों, डाह करें और विपरीत व्यवहार करें, तो भी तू उनसे स्नेह ही करना और अनुकूल ही रहना , स्वजन-परिजन सब के साथ तेरा बरताव अपनत्व पूर्ण और विनययुक्त ही होना चाहिये । वाणी से तू प्रियंवदा और व्यवहार से विनय की मूर्ति रहना । अपने महारानी पद का गर्व कभी मत करना । शौक्य-संतति को तू अपनी संतान के समान समझना," इत्यादि ।
__ माता की शिक्षा, ऋषि का आशीर्वाद और आश्रमवासियों की शुभ-कामना ले कर पद्मिनी पति के साथ विमान में बैठ गई । विद्याधर नरेश पद्मोत्तर ने माता और ऋषि की प्रणाम किया और सभी विमान में बैठ कर वैताढय पर्वत पर, रत्नपुर नगर में आये । वैताढय की दोनों श्रेणियों के राजा, चक्रवर्ती सुवर्णबाहु के आधीन हुए। उनकी अनेक कुमारियों से लग्न किया । भेंट में बहुत-से रत्न आदि प्राप्त हुए। वे छह खंड साध कर चक्रवर्ती सम्राट हुए । चौदह रत्न नौ निधान उनके आधीन थे।
दीक्षा और तीर्थकर नामकर्म का बन्ध
मनुष्य सम्बन्धी भोग भोगते हुए एक बार वे अटारी पर बैठे थे । उन्होंने देखा कि देवगण आकाश से नगर के बाहर उतर रहे हैं । थोड़ी ही देर बाद वनपालक ने तीर्थंकर भगवान जगन्नाथजी के पधारने की सूचना दी। वे जिनेश्वर की वन्दना करने गये । भगवान् के धर्मोपदेश का उन पर गंभीर प्रभाव पड़ा । स्वस्थान आ कर वे चिन्तन में मग्न हो गए- 'ऐसे देव तो मैने कहीं देखे हैं ।" चिन्तन गहरा हुआ और जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हो गया । वे समझ गए कि मनुष्य-भव के भोगों में फँस कर मैं अपने धर्म को भूल गया । अधूरी साधना पूर्ण करने का यह उत्तम अवसर है।" पुत्र को राज्य दे कर वे तीर्थकर भगवान् के पास प्रवजित हो गए । गीतार्थ बने । उन तप और शुद्ध संयम
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