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________________ ४८ तीथंकर-चरित्र भा.३ महाराज ने घोड़े पर चाबुक का प्रहार किया। घोड़ा तीव्रतर गति से दौड़ा। उसे रोकने के लिए महाराज ने लगाम खिची। उसे उलटी शिक्षा मिली थी। वह अधिक वेग से दौड़ा । ज्यों-ज्यों लगाम खिचे त्यों-त्यों दौड़ बढ़ाने लगा, जैसे वेगपूर्वक उड़ रहा हो । अंगरक्षक सेना बहुत पीछे छूट गई। घड़ीभर में ही राजा, वन की सुदूर अटवी में जा पहुँचे । उन्होंने स्वच्छ और शीतल जल से भरा हुआ एक जलाशय देखा । थाक प्रस्वेद एवं प्यास से व्याकुल अश्व अपने नाप रुक गया। नरेश नीचे उतरे। घोड़े का जोन खोला और स्वस्थ होने के बाद उसे नहलाया, पानी पिलाया और स्वयं ने भी स्नान कर के जल पान किया। कुछ समय सरोवर के किनारे विश्राम किपा और अश्वारूढ़ हो कर आगे बढ़े। कुछ दूर निकलने के बाद वे एक तपोवन में पहुँचे। वहाँ तापसों के छोटे-छोटे बालक खेल रहे थे । किसी की गोद में छोटा मृगशिशु उठाया हुआ था, तो कोई पुष्पलता का सिंचन कर रहा था। कोई शश-शिशु का मुख चूम रहा था, तो कोई हिरन के गले में बाहें डाल कर स्नेह कर रहा था। राजा को इस दृश्य ने मोह लिया। तपोवन की सुन्दरता, स्वच्छता और रमणीयता का अवलोकन करते हुए नरेश का दाहिना नेत्र फरका । आगे बढ़ने पर उनके कानों में युवती-कुमारिकाओं की सुरीली ध्वनि गुंजी। वे आकर्षित हो कर उधर ही चले । उन्होंने देखा--एक परम सुन्दरी ऋषिकन्या कुछ सखियों के साथ पुष्पवाटिका में पौधों का सिंचन कर रही है। राजेन्द्र को लगा-अप्सराओं एवं देवांगनाओं से अधिक सुन्दर रूप वाली यह विश्वसुन्दरी कौन है ? वे एक वृक्ष की ओट में रह कर उसे निरखने लगे। वह सुन्दरी सखियों के साथ वाटिका का सिंचन करती हुई माधवीमंडप में आई और अपने वल्कल वस्त्र के बन्धन शिथिल कर के मोरसली के वृक्ष को जलदान करने लगी। राजा विचार करने लगा कि कहाँ तो इस भुवन-मोहिनी का उत्कृष्ट रूप एवं कोमल अंग और कहां यह मालिन जैसा सामान्य कार्य ? मुझे लगता है कि यह तापसकन्या नहीं है, कोई उच्च कुल की राजकुमारी हे नी चाहिये । यह किसी गुप्त कारण से आश्रम में रहो होगी। इसके रूप ने मेरे हृदय को मोहित कर लिया है। राजा विचारमग्न हो कर एकटक उसे देख रहा था कि एक भौंरा उम सुन्दरी के मुख के श्वास की सुगन्ध से आकर्षित हो कर उसके मुख के अति निकट आ कर मंडराने लगा। वह डरी और हाथ से उड़ाने लगी, किन्तु वह वहीं मँडराता रहा, तो उसने अपनी सखी से कहा-- "अरे इस भ्रमर-राक्षस से मेरी रक्षा करो, रक्षा करो।" सखी ने कहा-“बहिन तुम्हारी रक्ष' तो महाराजाधिराज सुवर्णबाहु ही कर सकते हैं, किसी दूसरे मनुष्य में यह सामर्थ्य नहीं है । यदि अपनी रक्षा चाहती है, तो महाराज Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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