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________________ ३६ F♠♠♠♠♠ক♠ককढ़ ক तीर्थंकर चरित्र भाग ३ पहुँची । सरोवर में स्नान कर के ज्योंहि मैं बाहर निकली कि मुझे ब्रह्मदत्त नाम के एक राजा ने देखा और वह मेरे पास आ कर काम-क्रीड़ा की याचना करने लगा । मैंने अस्वीकार कर दिया, तो वह बलात्कार करने पर उद्यत हुआ । मैं रोई चिल्लाई और आपका नाम के कर पुकारा, तो उसने मुझे चाबुक से पीटा। वह बड़ा ही घमंडी है | उसे आपका भय भी नहीं नहीं है । मैं जब मूच्छित हो कर गिर पड़ी तब मुझे मरी हुई जान कर चला गया ।' कककफेंकें नागकुमार क्रोधित हो उठा और ब्रह्मदत्त को मारने के अभिप्राय से वह रात्रि के समय राजभवन में आया । उस समय महाराज ब्रह्मदत्त, अपनी महारानी को आज की घटना सुना रहे थे । नागकुमार उस समय महाराजा को मारने आ पहुँचा था । उन्होंने प्रच्छन्न रह कर महाराज की बात सुनी तो सन्न रह गया । कहाँ देवी की बात और कहाँ ब्रह्मदत्त की कही हुई सत्य घटना । उसे अपनी देवी के दुराचार पर विश्वास हो गया । इतने में सम्राट लघुशंका निवारण करने के लिये बाहर निकले । उन्होंने अपनी कान्ति से आकाश मण्डल को प्रकाशित करते हुए देदीप्यमान नागकुमार को देखा । अंतरिक्ष में रहे हुए नागकुमार ने कहा; -- " दुराचारियों को दण्ड देने वाले महाराजा ब्रह्मदत्त की जय हो । राजेन्द्र ! जिस नागदेवी को आपने दण्ड दिया, वह मेरी पत्नी है । उसने मुझे कहा कि- ' आप उस पर - बलात्कार करना चाहते थे, किन्तु निष्फल होने के कारण आपने उसे पीटा ।' उसकी बात सुन कर मैं क्रोधित हो उठा और आपका अनिष्ट करने के लिये यहां आया । किन्तु - आपकी सत्य बात सुन कर मेरा भ्रम दूर हो गया। मैने उस दुराचारिणी की बात पर विश्वास कर के आपके प्रति मन में दुर्भावना लाया, इसकी मैं क्षमा चाहता हूँ ।" "नागकुमार ! यह स्वाभाविक बात है। दुराचारी व्यक्ति अपना पाप छुपाने के लिये - दूसरों पर झूठे आरोप लगाते हैं और सुनने वाला रुष्ट हो जाता है । यदि शान्तिपूर्वक सोचसमझ कर कार्य किया जाय, तो अनर्थ नहीं होता और न पछताने का अवसर आता है ।" " राजेन्द्र ! आपका कथन सत्य है । में आपकी न्यायप्रियता एवं सदाचार- रक्षा प्रसन्न हूँ । कहिये में आपका कौन-सा हित साधन करूँ ।" Jain Education International "यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं, तो यही कीजिये कि जिससे मेरे राज्य में चोरी व्यभिचार और अपमृत्यु नहीं हो ।" " 'ऐसा ही होगा । किन्तु आपकी जन हितकारी भावना एवं सदाचार-प्रियता से For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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