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तीर्थंकर चरित्र -- भा. ३
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और सिन्धु नदी के तट पर वैताढ्य पर्वत के दोनों और नौ-नौ बिल हैं, कुल बहत्तर विल हैं । इन बिलों में मनुष्य रहेंगे और तिर्यंच जाति तो बीज रूप रहेगी ।
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उस विषम काल में मनुष्य और पशु मांसाहारी, क्रूर और विवेकहीन होंगे। गंगा और सिन्धु नदी का पानी मच्छ कच्छपादि से भरपूर होगा और रथ के पहिये की धूरो तक पहुँचे जितना ऊँडा होगा। रात के समय मनुष्य पानी में से मच्छ- कच्छप निकाल कर स्थल पर दबा रख देंगे। वे दिन के सूर्य के ताप से पक जावेंगे, उनका वे मनुष्य रात्रि के समय भक्षण करेंगे । यही उनका आहार होगा । उस समय दूध-दही आदि और पत्र - पुष्पफलादि तो होंगे ही नहीं और न ओढ़ना-विछौना आदि होगा । वे मनुष्य मर कर प्रायः नरक तिर्यंच होंगे।
यह स्थिति इस लोक के पाँचों भरत और पाँचों एरवत क्षेत्र की होगी । इक्कीस हजार वर्ष का यह दुःषम दुःषमा काल होगा ।
उत्सर्पिणीकाल का स्वरूप
छठा आरा पूर्ण होते ही अवसर्पिणी अपकर्ष ) काल समाप्त हो जायगा । तत्पश्चात् उत्सर्पिणी ( उत्कर्ष ) काल प्रारम्भ होगा। उसके भी छह आरक होगे । इसका क्रम उलटा होगा । प्रथम दुःषम-दुषम आरक, अवसर्पिणी काल के छठे आरक जैसा इक्कीस हजार वर्ष का होगा और सभी प्रकार के भाव उसी के समान होंगे। परन्तु अशुभ भावों में क्रमश: न्यूनता होने लगेगी ।
दूसरा दुःषम आरक अवसरणी काल के पाँचवें आरे के समान होगा और इक्कीस हजार वर्ष का होगा। इसके प्रारम्भ से ही उत्कर्ष होना प्रारम्भ हो जायगा ।
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सर्वप्रथम 'पुष्कर संवर्तक' नामक मेघ घनघोर वर्षेगा, जो लगातार सात दिन तक बरसता रहेगा । जिससे पृथ्वी का ताप और रुक्षता आदि नष्ट हो जायेंगे | उसके बाद 'क्षीरमेघ' की वर्षा होगी और लगातार सात दिन-रात होती रहेगी । इससे शुभ वण, गन्ध, रस और स्पर्श को उत्पति होगी । तत्पश्चात् तीसरे 'घृतमेघ' की वर्षा भः सात दिन तक लगातार होगी । इससे पृथ्वी में स्निग्धता उत्पन्न होगी । तदुपरान्त चौथे 'अमृतमेघ' की वर्षा भी सात दिन तक होगी, जिससे भूमि से वृक्ष- लतादि उत्पन्न होकर अंकुरित होंगे । अन्त में पाँचवाँ 'रसमेघ' भी सात दिन तक वर्षेगा । इसके प्रभाव से
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