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मृगापुत्र का पूर्वभव
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मृगादेवी का लाया हुआ आहार उस क्षुधातुर मृगःपुत्र ने खाया । पेट में जाते ही वह कुपथ्य होकर रक्त-पाप आदि में परिणत हो गया और वमन से निकल गया । वमन हुए उस रक्त-पापमय आहार को वह पुनः खाने लगा। गणधर भगवान् को, वह बीभत्स दृश्य देख कर विचार हुआ--"अहो, यह बालक पूर्व भव के गाढ़ पाप-बन्धनों का नारक जैमा दुःखमय विपाक भोग रहा है।"
मृगापुत्र का पूर्वभव गौतम भगवान् राज-भवन से निकल कर भगवान् के निकट आये और वन्दनानमस्कार कर पूछा--"भगवन् ! उस बालक ने पूर्वभव में ऐसा कौन-सा पाप किया था, जिसका नारकवत् कटु विपाक यहाँ भोग रहा है ? "
"गोतम ! इस भरत क्षेत्र में 'शतद्वार' नगर था। 'धनपति' वहाँ का राजा था । इस नगर के दक्षिणपूर्व में 'विजयवर्धमान' नाम का खेट (नदी और पर्वत के बीच की वस्ती) था। उसके अधीन पाँच सौ गाँव थे। उस खेट का अतिपति 'एकाई' नामक राप्र --(राजा का प्रतिनिधि) था। वह महान् अधार्मिक क्रूर और पापमय जीवन वाला था। उसने अपने अधीन ५०० ग्रामों पर भारी कर लगाया था। अनेक प्रकार के करों को कठोरता पूर्वक प्राप्त करने के लिये वह प्रजा को पडि न करता रहता था। वह उग्र
| अधिकारो, लोगों को बात बात में कठोर दण्ड देता, झठ आरोप लगाकर मारतापाटत। और वध कर देता था। वह लोगों का धन लूट लेता, चोरों से लुटवाता, पथिकों को लुटवाता, मरवाता, वह झूठ बोलकर बदलने वाला अत्यंत दुराचारी था। उसने पाप कर्मों का बहुत उपार्जन किया। उसके शरीर में सोलह महारोग उत्पन्न हुए, बहुत उपचार कराया, परन्तु कोई लाभ नहीं हुआ। वह मर कर प्रथम नरक में उत्पन्न हुआ। वहां का आयु पूर्ण कर यहाँ मनुष्य-भव में भी दुःख भोग रहा है ।
पापी गर्भ का माता पर कुप्रभाव
जिस दिन मृगावती देवी की कुक्षि में यह उत्पन्न हुआ, उसी दिन से रानी, पति को अप्रिय हो गई । रानी की ओर राजा देखता भी नहीं था। इस गर्भ के कारण रानी की पीड़ा भी बढ़ गई । रानी समझ गई कि पति की अप्रसन्नता और मेरी पीड़ा का एक मात्र कारण यह पापी जीव ही है। उसने उस गर्भ के गिराने का प्रयत्न किया, परन्तु वह
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