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________________ योगी और भोगी का सम्वाद "हे बन्धु ! हम दोनों भाई थे । सदा साथ रहने वाले, एक-दूसरे में अनुरक्त, एकदूसरे के वशीभूत एवं एक-दूसरे के हितैषी थे। हम पिछले पांच भवों के साथी, इस भव में पृथक् कैसे हो गए ? और तुम्हारी यह वया दशा है ? छ डो इस योग को और चलो मेरे साथ राजभवन में । पूर्वभव में आराधना किये हुए सयम और तप का फल हमें मिला है । इसका भोग करना ही चाहिये । मेरा सारा राज्य-वैभव तुम्हारे लिये प्रस्तुत है । में तुम्हें अब योगी नहीं रहने दूंगा। चलो उठो बन्धु ! विलम्ब मत करो'-चक्रवर्ती सम्राट ब्रह्मदत्तजी ने मुनिराज चित्रजी से आग्रहपूर्वक निवेदन किया। "राजन् ! यह सत्य है कि पूर्व-भवों में हमारा सम्बन्ध निगबाध रहा, परन्तु तुम्हारे निदान करने के कारण वह सम्बन्ध टूट गया और हम दोनों बिछुड़ गये। आज हम पुनः मिल गये हैं, तो आओ हम फिर साथी बन जायें। इस बार ऐसा साथ बनावें जो कभी छूटे ही नहीं"--महात्मा चित्रजी ने सम्राट को प्रेरित किया। "महात्मन् ! मैने तो अपने पूर्वभव के त्याग और तप का फल पा लिया है। इससे मैं भारतवर्ष के छहों खण्ड का एकछत्र स्वामी हूँ और मनुष्य सम्बन्धी सभी उत्कृष्ट भोग मुझे उपलब्ध है । मैं उनका यथेच्छ उपभोग करता हूँ। उत्कृष्ट पुण्य के उदय से प्राप्त उत्तम भोगों को बिना भोगे ही कैसे छोड़ा जा सकता है ? लगता है कि तुम्हें सामान्य भोग भी प्राप्त नहीं हुए। इसी से तुम साधु बन गए। चलो, मैं तुम्हें सभी राजभोग अर्पण करता हूँ। जब बिना तप-संयम के ही फल तुम्हें प्राप्त हो रहा है, तो साधु बने रहने की आवश्यकता ही क्या है ? " ___"राजन् ! कदाचित् तुम समझ रहे हो कि मैं दरिद्र था । अभावपीड़ित कुल में उत्पन्न हुआ और सुख सुविधा के अभाव से दुःखी हो कर साधु बना, तो यह तुम्हारी भूल होगी । बन्धु ! जिस प्रकार तुम महान् ऋद्धि के स्वामी हो, उसी प्रकार में भी महान् ऋद्धिमंत था । सभी प्रकार के भोग मेरे लिए प्रस्तुत थे, किन्तु मेर सद्भाग्य कि मुझे निग्रंथप्रवचन का वह उत्तम उपदेश मिला कि जिससे प्रभावित हो कर मैने भोग ठुकरा कर निग्रंथ-दीक्षा ग्रहण कर ली। मुझे आत्म-साधना में जो आनन्द प्राप्त होता है, उसके सामने तुम्हारे ये नाशवान् और परिणाम में दुःखदायक भोग है ही किंस गिनती में ? आओ बन्धु ! तुम भी इस आत्मानन्द का पान कर परम सुखी बनों"--महात्मा ने अपने पूर्वभवों के बन्धु को संसार-सागर में डूबने से बचाने के उद्देश्य से कहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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