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अब अरमणीय मत हो जाना
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पर्युपासना करना और निर्दोष आहारपानी, स्थान, पीठफलकादि ग्रहण करने के लिये निवेदन करने से उनको विनय भक्ति होती है ।"
- राजन् ! तुम विनयाचार जानते हो, फिर भी मेरे साथ किये हुए प्रतिकूल व्यवहार का परिमाजन किये बिना ही जाने लगे ?
- " भगवन् ! मैंने सोचा है कि कल प्रातःकाल अपनी रानियों और परिवार सहित श्रीचरणों की वन्दना कर के अपराध की क्षमा याचना करूँ ।"
अब अरमणीय मत हो जाना
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प्रदेशी चला गया और दूसरे दिन चतुरंगिनी सेना आदि और परिवार तथा अंत:पुर सहित आ कर गुरुदेव को विधिवत् वन्दन नमस्कार किया और बारबार क्षमा याचना धर्मोपदेश दिया, तलश्चात् प्रदेशी से कहा; --
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" राजन् ! तुम अरमणीय (अप्रिय, अधार्मिक, दुःखदायी) मिट कर रमणीय (प्रिय धर्मी, जीवों के लिये सुखदायी ) बने हो । अब फिर कभी अरमणीय नहीं बन जाना । क्योंकि जिस प्रकार - १ पत्र पुष्प फल आदि से भरपूर एवं सुशोभित उद्यान रमणीय होता है और बहुत-से पथिक उस उद्यान की शीतल छाया में विश्राम कर सुख का अनुभव करते हैं. परन्तु जब पतझड़ हो कर पत्रपुष्पादि रहित हो जाता है. तब अरमणीय हो जाता है । फिर वहाँ कोई पथिक नहीं टिकता । २ नाट्यशाला में तबतक ही दर्शकों की रुचि रहती है और भीड़ लगा रहती है, जबतक कि वहाँ गान, वादन, नृत्य-नाटक और हास्यादि से मनोरंजन होता रहे । नाटक समाप्त होने पर एक भी दर्शक नहीं ठहरता, क्योंकि वह नाट्यशाला अरणीय हो जाती है । ३ जबतक गन्नों का खेत कटता रहता है, पिलता रहता है, गन्ना, उसका रस और गुड़ पिया-पिलाया और दिया जाता है, तबतक रमणीय होता है, जब सब बन्द हो जाता है तो अरमणीय हो जाता है । ४ धान्य के खलिहान भी रमणीयअमीर होते हैं। इसलिए राजन् ! तुम रमणीय वन गये हो तो भविष्य में अरमर्ण य नहीं हो जाओ, इतनी सावधानी सदैव रखना " - महर्षि ने सावधानी का बोध दिया ।
प्रदेशी का संकल्प और राज्य के विभाग
" भगवन् ! मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि अब अरमणीय बनने की भूल कभी नहीं करूँ। इतना ही नहीं, अब मैं खेताम्बिका नगरी सहित अपने राज्य के सात हजार गाँवों
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