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________________ ४२७ PFFFFFFF ကိုင်လာာာာာာာာ » FFFF केशीकुमार श्रमण और प्रदेशी की चर्चा लेता । मैं तो दादी का भी अत्यन्त प्रिय था ? उत्तर--" राजन ! देव, मनुष्यलोक में इन चार कारणों से नहीं आते ; -- १ देव उत्पन्न होते ही दिव्य भोगों में गृद्ध हो कर रह जाते हैं । उन दिव्य भोगों के सामने मनुष्य संबंधी भोग तुच्छ होते हैं । इसलिए वे भोग में बचे रहते हैं । २ भोगगृद्धता से मनुष्यों का प्रेम नष्ट हो जाता है और देव - देवी से स्नेह बढ़ जाता है। इससे नहीं आते । ३ यदि किसी के मन में आने के भाव हों, तो दिव्य भोगाकर्षण से वह सोचता है। कि मुहूर्तमात्र रुक कर फिर चला जाऊँगा । इतने में यहाँ के सैकड़ों हजारों वर्ष व्यतीत हो जाते हैं और मनुष्य मर जाते हैं । इससे वे नहीं आते । ४ मनुष्यलोक की दुर्गन्ध चार सौ पाँच सौ योजन ऊँची जाती है और वह देवों को असह्य होती है । इसलिये भी नहीं आते । हूँ इस प्रकार देवों के मनुष्य क्षेत्र में नहीं आने के कारण हैं। मैं तुम से ही पूछता तुम स्नान-मंजनादि से शुचिभूत हो, देव पूजा के लिये पुष्पादि ले कर देवकुल जा रहे हो और मार्ग में शौचघर ( पाखाने) में खड़ा भंगो तुम्हें बुलावे और कहे कि -- 66 'आइये पधारिये, स्वामिन् ! यहाँ बैठिये और घड़ी भर विश्राम कीजिये," तो तुम उस शौचालय में जाओगे ?" -"l -"नहीं, भगवन् ! मैं वहाँ नहीं जाऊँगा । वह महाअशुचि एवं दुर्गन्धमय स्थान है " -- प्रदेशी ने कहा । " 'इसी प्रकार देव भी इस मनुष्य क्षेत्र की तीव्र दुर्गन्ध के कारण यहाँ नहीं आ सकते " -- महर्षि ने समाधान किया । ( ४ ) प्रश्न - - " भगवन् ! एक दिन मैं र जसभा में बैठा था कि मेरे समक्ष नगररक्षक एक चोर को -- चुराये हुये धन सहित लाया। मैने उस चोर को जीवित ही लोहे की दृढ़ कोठी में बन्द करवा कर उसके छिद्र लोह और गंगा के रस से बन्द करवा कर विश्वस्त सेवकों के संरक्षण में रखवा दिया। एक दिन मैंने उस कोठी को देखा तो वह उसी प्रकार बन्द थी, जैसी उस दिन की गई थी। उसमें एक भी छिद्र नहीं हुआ था । फिर कोठो खुलवा कर देखा, तो वह चोर मरा हुआ था। उस चोर का जीव उस शरीर में ही रहा था और शरीर के भी छिद होता, तो यह माना जा सकता था कि इस छिद्र में से जीव निकल गया । इस प्रत्यक्ष परीक्षण से सिद्ध हो गया कि जीव और शरीर एक ही है, भिन्न-भिन्न नहीं है ।" इससे यही सिद्ध होता है कि साथ ही नष्ट हुआ । यदि एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001917
Book TitleTirthankar Charitra Part 3
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Story, Literature, & Biography
File Size10 MB
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